विवेकधैर्याश्रयनिरूपणम्/ VivekDhayryashray


श्रीकृष्णाय नमः



श्रीमदाचार्यचरणकमलेभ्यो नमः ॥



श्रीमन्महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य विरचित



विवेकधैर्याश्रयनिरूपणम्



विवेकधैर्ये सततं रक्षणीये तथाश्रयः ।



विवेकस्तु हरिः सर्वं निजेच्छातः करिष्यति॥१॥



भावार्थ:- जिस प्रकार विवेक और धैर्य रखना उचित है उसी प्रकार श्रीभगवान का आश्रय रखना उचित है ।



अब विवेक क्या है, इस विषय पर श्रीमहाप्रभुजी स्पष्टीकरण करते हैं कि विवेक यह है कि श्रीहरि अपनी इच्छा से सब कुछ करेंगे ॥१॥



प्रार्थिते वा ततः किं स्यात् स्वाम्यभिप्रायसंशयात् ।



सर्वत्र तस्य सर्वं हि सर्वसामर्थ्यमेव च ॥२॥



भावार्थः– स्वामी का अभिप्राय क्या है? इस विषय में सेवक अनजान है, क्या कार्य किस आशय से प्रभु करते कराते हैं ।



इस विषय को पूर्ण रूप में जीव जब जान नहीं सकता तब प्रार्थना करने से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है ।



सर्वत्र सब कुछ उनका ही है और उनमें सब प्रकार से सामर्थ्य है । सारांश यह है कि भगवदिच्छा को समझने में जीव असमर्थ है



और प्रभु सर्वज्ञ एवं सर्व शक्तिमान् होने के कारण सेवक के हित के लिये सब कुछ करेंगे ।



पुष्टिमार्गीय भक्त प्रभु से किसी बात के लिये कभी प्रार्थना न करें ॥२॥



अभिमानश्च सन्त्याज्यः स्वाम्यधीनत्वभावनात् ।



विशेषतश्चेदाज्ञा स्यादन्तःकरणगोचरः ॥३॥



तदा विशेषगत्यादि भाव्यं भिन्नं तु दैहिकात् ।



आपद्गत्यादिकार्येषु हठस्त्याज्यश्च सर्वथा ॥४॥



भावार्थ:- अपने को स्वामी के अधीन मानकर सब प्रकार से अभिमान त्याग करना उचित है।



अलौकिक अर्थात् सेवा सम्बंधी विशेष आज्ञा अपने अन्तःकरण द्वारा प्रकट हो तब उसी के अनुसार आचरण करना उचित है।



आपत्ति के अवसर पर तथा गमनादि कार्यों में हठ का सर्वदा त्याग करना उचित है ॥३-४॥



अनाग्रहश्च सर्वत्र धर्माधर्माग्रदर्शनम् ।



विवेकोऽयं समाख्यातो धैर्यं तु विनिरूप्यते॥५॥



भावार्थः– समस्त विषयोंमें आग्रह नहीं रखकर, धर्म और अधर्म विषयक बिचार करना उचित है ।



अर्थात् प्रत्येक विषय में धर्म और अधर्म इन उभय में से किस कार्य में धर्म अधिक है और किस कार्य में



अधर्म अधिक है यह देखकर धर्म का ग्रहण और अधर्म का त्याग करना । इस प्रकार मैंने विवेक विषय में अपना मत कहा



अब धैर्य का निरूपण करता हूं ॥५॥



त्रिदुःख सहनं धैर्यमामृतेः सर्वतः सदा ।



तक्रवद् देहवद् भाव्यं जडवत् गोपभार्यवत्॥६॥

भावार्थ:- सदैव मृत्यु पर्यन्त अर्थात् सम्पूर्ण जीवन में आधिभौतिक आध्यात्मिक और अधिवैदिक तीनों प्रकार कें
दुखों को सर्वविध



सहन करना इसका नाम धैर्य है । तक्र केसमान, देह के समान, जड के समान तथा गोपभार्या के समान भावना करनी ॥६॥



प्रतीकारो यदृच्छातः सिद्धश्चेन्नाग्रही भवेत् ।



भार्यादीनां तथान्येषामसतश्चाक्रमं सहेत् ॥७॥



भावार्थ:- यदि श्रीप्रभु की इच्छा से किंवा अन्य कारणों से दुःख निवारण होता हो तो दुःख भोगने का आग्रह न रखे ।



पत्नि इत्यादि के अथवा दूसरे असत् पुरुषों के आक्रमणों को सहन करें। शारांश यह है कि अपने और पराये लोग



अपने दुष्ट स्वभाव के कारण वे हमें किसी प्रकार से दुःख दें तो उसको सहन करें, अधीर न बनें ॥७॥



स्वयमिन्द्रियकार्याणि कायवाड्मनसा त्यजेत् ।



अशूरेणापि कर्तव्यं स्वस्यासामर्थ्यभावनात् ॥८॥



भावार्थ:- स्वयं मन, वचन और कर्म से इन्द्रियों के विषयों का त्याग कर देना ही उचित है ।



अपना असामर्थ्य विचार कर भगवान के सामर्थ्य पर विचार कर विषय भोग का सर्वथा परित्याग करें।



इन्द्रियों को जीतने के लिये जिस शौर्य की आवश्यकता है वह सबमें नहीं रहता इसलिये ऐसे लोग भगवान का



सामर्थ्यं लेकर अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं ॥८॥



अशक्ये हरिरेवास्ति सर्वमाश्रयतो भवेत् ।



एतत् सहनमत्रोक्तमाश्रयोऽतो निरूप्यते ॥९॥



भावार्थ:- जिन कार्यों के करने में हम अशक्य अर्थात् सामर्थ्य रहित हैं उनमें श्रीहरि ही सहायक हैं ।



उनके आश्रय से सब कार्य सिद्ध होते हैं । इस प्रकार यहाँ पर धैर्य के सम्बन्ध में मैंने निरूपण किया,



अब आगे आश्रय के विषय का निरूपण करता हूँ ॥९॥



ऐहिके पारलोके च सर्वथा शरणं हरिः ।



दुःखहानौ तथा पापे भये कामाद्यपूरणे ॥१०॥



भक्तद्रोहे भक्त्यभावे भक्तैश्चातिक्रमे कृते ।



अशक्ये वा सुशक्ये वा सर्वथा शरणं हरिः॥११॥



भावार्थः- इस लोक के और परलोक के सब कार्यों में श्रीहरि का शरण (आश्रय) है ।



दुख निवृति (हानि) में; पाप, भय और इच्छाओं की असफलता में भक्तद्रोह अथवा भक्ति के अभाव में भक्तों के द्वारा



अतिक्रमण से अर्थात् दुःख प्राप्त होने में इस प्रकार की अन्य शोचनीय अवस्था में भगवान का आश्रय ही उचित है ॥१०–११॥



अहङ्कारकृते चैव पोष्यपोषणरक्षणे ।



पोष्यातिक्रमणे चैव तथान्तेवास्यतिक्रमे ॥१२॥



अलौकिक मनःसिद्धौसर्वार्थे शरणं हरिः ।



एवं चित्ते सदा भाव्यं वाचा च परिकीर्तयेत् ॥१३॥



भावार्थः- अहंकार हो जाय, अथवा पोष्य वर्ग का भरणपोषण और रक्षण करने के लिये, वा पोष्य वर्ग दुःख दें,



वा सेवक आदि दुख दें अलौकिक मन की सिद्धि में अर्थात् मानसी सेवा-सिद्धि में इस प्रकार सब कामों के लिये



हरि की ही शरण में जाना चाहिये । इस प्रकार सदैव चित्त में विचारते रहना चाहिये और मुख से अष्टाक्षर मन्त्र जपते रहना चाहिये॥१२–१३॥



अन्यस्य भजनं तत्र स्वतो गमनमेव च ।



प्रार्थनाकार्यमात्रेऽपि तेतोऽन्यत्र विवर्जयेत्॥१४॥



भावार्थः- दूसरे देवताओं का भजन, और स्वयं वहाँ पर जाना, और कोई भी कार्य के लिये उससे प्रार्थना करना,



इन तीनों बातों को त्याग देना चाहिये ॥१४॥



अविश्वासो न कर्तव्यः सर्वथा बाधकस्तु सः ।



ब्रह्मास्त्रचातको भाव्यौ प्राप्तं सेवेत निर्ममः  ॥१५॥



भावार्थः– अविश्वास नहीं करना चाहिये, क्योंकि यह निश्चय बाधक ही है, जैसे मेघनाद ने हनुमानजी को ब्रह्मास्त्र से बाँधा



था; तब वे बँध गये परन्तु रावण को उसपर अविश्वास होने के कारण हनुमानजी को लोहे की मोटी जंजीर से बाँधा तब ब्रह्मास्त्र ने



अपना गुण छोड़ दिया और हनुमानजी ने उस मोटी जंजीर को भी तोड़ डाला । और विश्वास रखने के कारण



चातक पक्षीं को मेघ जड़ होने पर भी स्वाती नक्षत्र में वर्षा करके जल देता ही है । इस तरह ब्रह्मास्त्र और चातक पक्षी के



दृष्टांत को स्मरण रखते हुए जो कुछ प्राप्त हो उसे ममता रहित होकर सेवन करे ॥१५॥



यथाकथञ्चित् कार्याणि कुर्यादुच्चावचान्यपि।



किं वा प्रोक्त्तेन बहुना शरणं भावयेद्धरिम् ॥१६॥



भावार्थ:- जैसे बने वैसे लौकिक वैदिक तथा अन्य कार्य भी करता रहे विशेष कहने की क्या आवश्यकता है ? हरि की शरण में रहे ॥१६॥



एवमाश्रयणं प्रोक्तं सर्वेषां सर्वदा हितम् ।



कलौ भक्त्यादिमार्गा हि दुःसाध्या इति मे मतिः ॥१७॥



भावार्थ:- इस प्रकार सदैव सबका हित करनेवाला आश्रय का स्वरूप मैंने कहा । इन तीनों के बिना कलियुग में भक्ति



आदि मार्ग सिद्ध होना बहुत कठिन है ऐसी मेरी सम्मति है ॥१७॥



इति श्रीमद्ववल्लभाचार्यविरचितं विवेकधैर्याश्रयनिरूपणं सम्पूर्णम् ॥ ८ ॥