मद से पतन (प्रभुता का मद)


 मद से पतन (प्रभुता का मद)



इन्द्र ने वृत्रासुर का वध कर दिया इससे इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा। वृत्रासुर त्वष्टा ऋषि का यज्ञपुत्र था। तब इन्द्र अपना लोक छोड़कर भागे और एक अज्ञात सरोवर में जा छिपे। ब्रह्महत्या के भय से इंद्र बहुत वर्षों उस सरोवर से निकले ही नहीं, इन्द्रासन सूना हो गया। राजा के न रहने से बड़ी अव्यवस्था हो गई। सब विचार करने लगे कि राजकाज कौन देखे, किसे राजा बनाया जाए?  देवगुरु बृहस्पति ने कहा, “इन्द्रलोक का राजकाज चलाने के लिए किसी समर्थ, योग्य और अनुभवी राजा को ही इस पद पर बैठाया जाए।" बहुत सोच-विचार के बाद गुरु बृहस्पति ने कहा, "इस समय भूलोक में नहुष का राज है।। वे बहुत ही समर्थ, योग्य और चक्रवर्ती साम्राट हैं। इन्द्र के न आने तक उन्हें इंद्र की पदवी देकर इन्द्रासन पर बैठाया जाए।"

सबकी सहमति होने पर नहुष को इन्द्र की पदवी देकर इन्द्रासन सौंप दिया गया। नहुष ने बड़ी कुशलता से राजकाज संभाल लिया। इन्द्रलोक का वैभव देखकर उन्होंने सोचा कि ऐसा सुख और वैभव भूलोक के राजाओं को कहां। सचमुच इन्द्र होना कितने वैभव और सम्पदा का स्वामी होना होता है। इसके आगे तो मेरे भूलोक का राज एक दरिद्र का राज लगता है। इन्द्रलोक की चकाचौंध में नहुष अपने कर्त्तव्य पर उतना ध्यान न देकर सुख-वैभव भोगने के बारे में ज्यादा सोचने लगे। वह भूल गए कि वे अस्थायी इन्द्र-पद पर बैठाए गए हैं; बल्कि वे अब अपने को सचमुच का इंन्द्र समझने लगे। ऐसा विचार उनके मन में पैदा हुआ कि जब इन्द्र बन गए तो इन्द्राणी भी उनकी होनी चाहिए,। उन्होंने इन्द्र की पत्नी शची के सामने प्रस्ताव रखा कि मैं इन्द्र हो गया हूं, अत: तुम मेरी पत्नी के रूप में मेरे साथ रहो। शची ने नहुष को बहुत समझाया, “मैं पतिव्रता स्त्री हूं। इन्द्र ही मेरे पति हैं। वे ब्रह्महत्या के भय से भले ही अभी छिपे हैं, पर मैं पत्नी उन्हीं की हूं, मुझे अपनी इन्द्राणी बनाने का विचार त्याग दें और जिस कार्य के लिए आप नियुक्त किए गए हैं, वही राजकाज करें।"

हुष ने क्रोधित होकर कहा, “अब मैं ही इन्द्र हूं और आजीवन यहीं इन्द्ररूप में रहूंगा। अगर तुम मेरी बात नहीं मानोगी तो मैं बलपूर्वक तुम्हें अपनी रानी बना लूंगा। तुम्हारे बिना इन्द्रलोक का सुख अधूरा है।"

" शची ने मन ही मन विचार किया, 'नहुष प्रभुता पाकर मदमस्त हो गए हैं। विवेक नष्ट हो गया है, कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान इन्हें नहीं रह गया है। यह मनुष्य की कमजोरी है, इसलिए अपना शील बचाने के लिए मुझे कुछ उपाय करना होगा।'

काफी सोच-विचार कर शची ने कहा, "हे नरेन्द्र ! अब आप समर्थ हैं। मुझमें आपके प्रस्ताव का विरोध करने की सामर्थ्य नहीं। आप ऐसा चाहते हैं तो एक काम करें। आप सप्तऋषियों को कहार बनाकर पालकी में बैठकर मुझसे ब्याह के लिए मेरे घर आएं। तब मैं इन्द्राणी के रूप में आपके साथ रहूंगी।"भोगी मनुष्य रोगी होता है। उचित-अनुचित का विचार नहीं कर पाता । नहुष ने तत्काल शची का प्रस्ताव स्वीकार कर किया। दूसरे दिन उन्होंने आज्ञा दी कि सप्तऋषि मुझे पालकी में बैठाकर स्वयं कहार बनकर पालकी ढोएं और मुझे इन्द्राणी शची के घर ले चलें । राजाज्ञा थी अतः सप्तऋषियों ने यह स्वीकार कर लिया। एक सुंदर सजी हुई पालकी में नहुष बैठे और सप्तऋषि कहार बनकर बारी-बारी से पालकी ढोने लगे। ऋषि तो साधु-महात्मा थे। पालकी ढोने और तेज चलने का उन्हें अभ्यास नहीं था। उधर नहुष जल्दी से जल्दी इन्द्राणी के पास पहुँचने के लिए उतावला हो रहा था। सप्तऋषियों के धीरे-धीरे चलने तथा देर होते देखकर वह क्रोधित होकर बोला, "आलसी ऋषियो ! देर हो रही है, धीरे-धीरे मत चलो।‘सर्प-सर्प'।" सर्प का अर्थ होता है तेज चलो, तेज चलो। ऋषि थके-मांदे तो थे ही। नहुष की इस उद्दण्डता से अगस्त्य ऋषि को क्रोध आ गया। उन्होंने अपने साथियों से कहकर पालकी कंधे से उतारी और शाप देते हुए कहा, “नहुष ! प्रभुता पाकर तू अपना विवेक खो बैठा है। तुझे नीति-धर्म का ज्ञान नहीं रह गया है। एक तो तू ऋषि-ब्राह्मणों से पालकी ढुलवा रहा है, ऊपर से 'सर्प सर्प' कहकर तीव्र चलने को कहता है, अब तू इन्द्र-पद के योग्य नहीं रहा। जा स्वयं 'सर्प' हो जा।" ऋषियों के जल्दी चलने के लिए 'सर्प सर्प' कहने का फल नहुष को यह मिला कि इन्द्र-पद छूटा, नर देह छूटी, पृथ्वी का राज छूटा और अब सर्प योनि में जीवन भोगना पड़ा। छिपकर तप करते रहने से अब तक इन्द्र ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो चुके थे। वे देवलोक आए और इन्द्र पद पर पुनः आसीन हुए। देवताओं और ऋषियों ने चैन की सांस ली। इसीलिए कहा गया है कि किसी का भी मद और अहंकार उसे पतन की ओर ले जाते हैं ।