कपिल गीत आध्याय -१


अथ श्रीमद्भागवत तृतीय  स्कन्धान्तर्गता



 प्रथमोऽध्यायः १.



  शौनक उवाच ॥



कपिलस्तत्त्वसंख्याता भगवानात्ममायया ।



जातः स्वयमजः साक्षादात्मप्रज्ञप्तये नृणाम् ॥१॥



श्रीशौनकजी बोले कि, तत्त्व सांख्यशास्त्र के कर्ता भगवान् कपिलदेवजी मनुष्यों को आत्मतत्त्व का



उपदेश करने के लिये अपनी माया से आपही अजन्मा भगवान् ने जन्म लिया ॥१॥



न ह्यस्य वर्ष्मणः पुंसां वरिम्णः सर्वयोगिनाम् ।



विश्रुतौ श्रुतदेवस्य भूरि तृप्यंति मेऽसवः ॥२॥



सब पुरुषों में शिरोमणि, योगिजनों में श्रेष्ठ, ऐसे वासुदेव भगवान् की कीर्ति और परमेश्वर के अत्यन्त चरित्र



सुनने से भी मेरी इन्द्रियें तृप्त नहीं होतीं ॥२॥



यद्यद्विधत्ते भगवान्स्वच्छंदाऽऽत्मात्ममायया ।



तानि मे श्रद्दधानस्य कीर्तन्यान्यनुकीर्तय ॥३॥



अपने प्यारे भक्तों की इच्छा से जो जो स्वरूप त्रिभुवनेश्वर भगवान् धारण करते हैं और अपनी मनमोहिनी



माया से जो जो अलौकिक लीला करते हैं l और अपनी मनमोहिनी माया से जो जो अलौकिक लीला की हैं वे



चरित्र मुझ श्रद्धालु को कीर्तन करने के योग्य हैं। सो कृपा कर कीर्तन कीजे ॥३॥



सूत उवाच



द्वैपायनसखस्त्वेवं मैत्रेयो भगवांस्तथा ।



प्राहेदं विदुरं प्रीत आन्वीक्षिक्यां प्रचोदितः ॥४॥



सूतजी बोले कि, वेदव्यासजी के प्यारे सखा ब्रह्मविद्या में प्रेरित मैत्रेय भगवान् ने विदुरजी से प्रीति के



मारे इसी प्रकार के वचन कहे थे, जैसा तुमने मुझसे प्रश्न किया, सो हम तुमसे कहेंगे, एकाग्रचित्त होकर सुनिये ॥४॥



 मैत्रेय उवाच



पितरि प्रस्थितेऽरण्यं मातुः प्रियचिकीर्षया ।



तस्मिन्बिदुसरेऽवात्सीद्भगवान्कपिलः किल ॥५॥



मैत्रेयजी बोले कि, जब कर्दमजी वन को चले गये, तब कपिलदेव जी अपनी माता की मनःकामना को



पूर्ण करने के अर्थ उसी बिन्दुसरोवर पर वास करने लगे ॥५॥



तमासीनमकर्माणं तत्त्वमार्गाग्रदर्शनम् ।



स्वसुतं देवहूत्याह धातुः संस्मरती वचः ॥६॥



अपने सुत अकर्मी तत्त्वमार्ग के अग्र दिखानेवाले कपिल-देवजी को बैठा देखकर ब्रह्मा का वचन स्मरण कर ॥६॥



  देवहूतिरुवाच



निर्विण्णा नितरां भूमन्नसदिंद्रियतर्षणात् ।



येन संभाव्यमानेन प्रपन्नान्धं तमः प्रभो ॥७॥



देवहूति बोली, हे भूमन् ! हे प्रभो ! खोटी इन्द्रियों की तृष्णा से अब वैराग्य प्राप्त हुआ जिन विषयों की भावना से अन्धतम में गिरनापडा ॥७॥



तस्य त्वं तमसोंऽधस्य दुष्पारस्याद्य पारगम् ।



सच्चक्षुर्जन्मनामंते लब्धं मे त्वदनुग्रहात् ॥८॥



जो महागम्भीर दुःख के समुद्र से कठिनाई पूर्वक पार जा सकै उस अन्ध्रकार से पार करनेवाले, अनेक जन्मों के



अंत में आप की कृपा से मुझ को इस सुन्दर स्वरूप का दर्शन हुआ है ॥८॥



य आद्यो भगवान् पुंसामीश्वरो वै भवान्किल ।



लोकस्य तमसांधस्य चक्षुः सूर्य इवोदितः॥९॥



पुरुषों में आद्य पुरुष भगवान् ईश्वर हैं सो आप हो अँधियारे से अन्धे हुए लोक के सूर्य के समान नेत्ररूप तुम उदित हुए हो ॥९॥



अथ मे देव संमोहमपाक्रष्टुं त्वमर्हसि ।



योऽवग्रहोऽहं ममेतीत्येतस्मिन्योजितस्त्वया ॥१०॥



इस कारण हे देव ! जो यह असत् आग्रह, अहं, ममता,मोह आपने ही इन से संयोग कर रक्खा है,



सो आप हमारे मोह को दूर कीजिए ॥१०॥



तं त्वागताऽहं शरणं शरण्यं



स्वभृत्यसंसार-तरोः कुठारम् ॥



जिज्ञासयाऽहं प्रकृतेः पूरुषस्य



नमामि सद्धर्मविदां वरिष्ठम् ॥११॥



शरणागतप्रतिपालक, भक्तवत्सल, अपने भक्तों की मृत्यु के वृक्ष को काटने के लिये कुठार रूप, सद्धर्म में श्रेष्ठ, प्रकृति पुरुष



जानने की इच्छा करके मैं तुम्हारे शरण आई हूं, इसलिये आपको प्रणाम करती हूं ॥११॥



 मैत्रेय उवाच



इति स्वमातुर्निरवद्यमीप्सितं



निशम्य पुंसामपवर्गवर्धनम् ।



धियाऽभिनंद्यात्मवतां सतां गति-



र्बभाष ईषत्स्मितशोभिताननः ॥१२॥



आत्मज्ञानी सन्तों के गतिरूप भगवान ने मंद मंद मुसकान वाले शोभायमान मुख से अपनी माता से कहा ॥१२॥



श्रीभगवानुवाच



योग आध्यात्मिकः पुंसां मतो निश्श्रेयसाय मे ।



अत्यंतो पर तिर्यत्र दुःखस्य च सुखस्य च ॥१३॥



कि, पुरुषों के कल्याणार्थं ब्रह्मविद्या में आशा रखनी यही मेरा मत है, जिस ब्रह्मविद्या के लाभ होने से सुखदुःख का नाश हो जाता है ॥१३॥



तमिमं ते प्रवक्ष्यामि यमवोचं पुरानघे ।



ऋषीणां श्रोतुकामानां योगं सर्वांगनैपुणम् ॥१४॥



हे अनघे ! सर्वप्रकार से बहुत निपुण योग को सुनने की इच्छा वाले योगियों को जो योग मैंने प्रथम कहा था वही कहता हूं, तुम श्रवण करो ॥१४॥



चेतः खल्वस्य बंधाय मुक्तये चात्मनो मतम् ।



गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये ॥१५॥



चित्त निश्चय कर के इसके बंधनार्थ है और आत्मा का चित्त मुक्ति के अर्थ भी कहा है, गुणों में आसक्तता होने से बंधन होता



है और जिस पुरुष का चित्त ईश्वर में लगै वह मुक्त हो जाता है ॥१५॥



अहंममाभिमानोत्थैः कामलोभादिभिर्मलैः ।



वीतं यदा मनः शुद्धमदुःखमसुखं समम् ll१६॥



मैं, मेरा, यह अभिमान से उठा हुआ, काम लोभादि मलों से रहित शुद्ध मन होता है तब सब दुःखों का नाश होकर सुख की प्राप्ति होती है ॥१६॥



तदा पुरुषमात्मानं केवलं प्रकृतेः परम् ।



निरंतरं स्वयंज्योतिरणिमानमखंडितम् ॥१७॥



तब पुरुष आत्मा केवल प्रकृति से परे निरंतर स्वयंज्योति अणुमात्र अखंडित परमेश्वर को ll१७ll



ज्ञानवैराग्ययुक्तेन भक्तियुक्तेन चात्मना ।



परिपश्यत्युदासीनं प्रकृतिं च हतौजसम्॥१८॥



ज्ञानवैराग्यभक्तियुक्त आत्मद्वारा सब से उदासीन प्रकृति के पराक्रम का नाश करने वाला ब्रह्म जीव ब्रह्म को देखता है ll१८ll



न युज्यमानया भक्त्यां भगवत्यखिलात्मनि ।



सदृशोऽस्ति शिवः पंथा योगिनां ब्रह्मसिद्धये॥१९॥



भगवान् अखिलात्मा में लगे हुए के समान योगियों को या सिद्धि के लिये इससे अधिक और मंगलदायक मार्ग नहीं है ॥१९॥



प्रसंगमजरं पाशमात्मनः कवयो विदुः ।



स एव साधुषु कृतो मोक्षद्वारमपावृतम् ॥२०॥



इस जीव को जगत में आसक्त हो जाना यह अजरअमर फाँसी है, यही आसक्ति साधुसन्तों में करै तो उसके लिये मोक्ष का द्वार खुला हुआ है ॥२०॥



तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् ।



अजातशत्रवः शांताः साधवः साधुभूषणाः ॥२१॥



मुनिजनों का कथन है कि सबकी सब बातें सहै, सब देह धारियों पर दयालुता रखै, सब जीवमात्र को सुहृद्भावसे वर्त्ते, किसी को अपना शत्रु न समझे,



शांतगुण परकार्य सहायक साधुओं के अलंकार हैं ॥२१॥



मय्यनन्येन भावेन भक्तिं कुर्वंति ये दृढाम् ।



मत्कृते त्यक्तकर्माणस्त्यक्तस्वजनबांधवाः॥२२॥



जो मुझमें अनन्य भाव से दृढिभक्ति कर के मेरे लिये सब काम त्यागते हैं, और सब स्वजन बन्धुओं से स्नेह छोड़ते हैं ॥२२॥



मदाश्रयाः कथा मृष्टाः शृण्वंति कथयंति च ।



तपंति विविधास्तापा नैतान्मद्गतचेतसः॥२३॥



जो मेरी ही कथा मनोहर मृदुल को सुनते हैं, अथवा कहते हैं, और जो अपना मन मुझ में लगाते हैं उनको किसी प्रकार का



ताप नहीं व्याप सकता ॥२३॥



त एते साधवः साध्वि सर्वसंग विवर्जिताः ।



संगस्तेष्वथ ते प्रार्थ्यः संगदोषहरा हि ते॥२४॥



हे साध्वी । जो साधु हैं वे सब संग से रहित हैं और किसी ताप से तापित नहीं होते, उन महात्माओं का सत्संग करना



चाहिये इसलिये कि वे सब संगति के दोष दूर करने वाले हैं ॥२४॥



सतां प्रसंगान्मम वीर्यसंविदो



भवंति हृत्कर्णरसायनाः कथाः ।



तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि



श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥२५॥



हे जननी सन्तों के प्रसंग से मेरे पुरुषार्थ वाली कथा हृदय और कर्ण की सुखदायक आत्मज्ञान कराने वाली कथा होती है,



उसके सुनने और प्रेम करने से मोक्षमार्ग में शीघ्र श्रद्धा, प्रीति, भक्ति श्रीकृष्णचंद्र के चरणारविंद में सहज में उत्पन्न हो सकती है॥२५॥



भक्त्या पुमाञ्जातविराग ऐंद्रियाद्



दृष्टश्रुतान्मद्रच नानुचिन्तया ।



चित्तस्य यत्तो ग्रहणे योग युक्तो



यतिष्यते ऋजुभिर्योगमार्गेः ॥२६॥



मेरे चरित्र का चिंतन करने से प्रथम मनुष्य के हृदय में भक्ति प्रगट होती है, और भक्ति करने से पुरुष को वैराग्य उत्पन्न होता है।



और वैराग्य में मेरी अलौकिक रचना के विचार करने से योगयुक्त होकर चित्त के ग्रहणार्थ कोमल योग के मार्गों से यत्न करें ॥२६॥



असेवयाऽयं प्रकृतेर्गुणानां



ज्ञानेन वैराग्यविजृंभितेन ।



योगेन मय्यार्पितया च भक्त्या



मां प्रत्यगात्मानमिहावरुंधे ||२७॥



प्रकृति के गुणों की सेवा न करने से और ज्ञान वैराग्य अधिक बढ़ाने का चितवन करै; योग का साधन करै, सब कर्म



मेरे समर्पण करे और एकाग्रचित्त हो मेरी दृढभक्ति करने से प्राणी सर्व अंतर्यामी मुझ को प्राप्त होता है ॥२७॥



देवहूतिरुवाच



का स्चित्त्वय्युचिता भक्तिः कीदृशी मम गोचरा ।



यया पदं ते निर्वाणमंजसाऽन्वश्रवा अहम् ॥२८॥



देवहूती बोली कि ऐसी कौन सी भक्ति है जिसको मैं कर सकूँ? क्योंकि मैं स्त्री हूँ, मुझ को किस प्रकार की भक्ति करनी चाहिये?



जिसके प्रभाव से बिना प्रयास तुम्हारा मोक्ष पद प्राप्त होता है ऐसा मैंने सुना है॥२८॥



यो योगी भगवद्वाणो निर्वाणात्मंस्त्वयोदितः ।



कीदृशः कति चांगानि यतस्तत्त्वावबोधनम् ॥२९॥



भगवान् का उपलक्ष करनेवाला योग तुमने कहा है। सो कैसा है ? और उसके कितने अंग हैं ? जिससे तत्त्वज्ञान होता है ॥२९॥



तदेतन्मे विजानीहि यथाऽहं मंदधीहरे ।



सुखं बुद्ध्येय दुर्बोधं योषा भवदनुग्रहात् ॥३०॥



हे हरे ! ऐसी - सुगम रीति से कोई शिक्षा मुझ को करो कि, जिस के प्रभाव से मैं मन्दमति स्त्री भी तुम्हारे अनुग्रह से कठिन



बात को सहज में समझ लूँ ॥३०॥



  मैत्रेय उवाच



विदित्वाऽर्थं कपिलो मातुरित्थं



जातस्नेहो यत्र तन्वाऽभिजातः ।



तत्त्वाम्नायं यत्प्रवदंति सांख्यं



प्रोवाच वै भक्तिवितानयोगम् ॥३१॥



  मैत्रेय जी बोले किकपिलदेव जी ने अपनी जननी के मनोरथ- को जानकर अधिक स्नेह किया, जहाँ शरीर धारी होकर जन्मे



उस माता को तत्त्वों की संख्या वाले सांख्यशास्त्र की शिक्षा भक्ति विस्तृत योग की रीति से कपिलदेव जी कहने को उद्यत हुए ॥३१॥



  ॥श्रीभगवानुवाच ॥



देवानां गुणलिंगानामानुश्रविककर्मणाम् ।



सत्त्व एवैकमनसो वृत्तिः स्वाभाविकी तु या ॥३२॥



श्री भगवान बोले- माता ! जिसका चित्त एकमात्र भगवान में ही लग गया है, ऐसे मनुष्य की वेदविहित कर्मों में लगी हुई तथा विषयों



का ज्ञान कराने वाली ( कर्मेन्द्रिय एवं ज्ञानेंद्रिय- दोनों प्रकार की) इन्द्रियों की जो सत्वमूर्ति श्रीहरि के प्रति स्वाभाविकी प्रवृत्ति है,



वही भगवान की अहैतुकी भक्ति है ॥३२॥



अनिमित्ता भागवती भक्तिः सिद्धिर्गरीयसी ।



जरयत्याशु या कोशं निगीर्णमनलो यथा ॥३३॥



निष्प्रयोजन की हुई भागवती भक्ति बड़ी सिद्धि है जैसे जठरानल भोजन किये हुए अन्न को भस्म कर देता है, वैसे ही



भक्ति भी वासना को जला देती है ॥३३॥



नैकात्मतां मे स्पृहयंति केचि-



न्मत्पादसेवाऽभिरता मदीहाः ।



येऽन्योन्यतो भागवताः प्रसज्ज्य



सभाजयंते मम पौरुषाणि ॥३४॥



मेरे चरणों की सेवा में जिन पुरुषों की चेष्टा रहती है और केवल मेरे ही लिये सब कर्म करते हैं वे लोग सायुज्य मोक्ष की



इच्छा नहीं रखते, वे सज्जन पुरुष इकठे होकर मेरे चरित्रों की प्रशंसा करते हैं ॥३४॥



पश्यंति ते मे रुचिराण्यंब संतः



प्रसन्नवक्त्रारुणलोचनानि ।



रूपाणि दिव्यानि वरप्रदानि



साकं वाचं स्पृहणीयां वदंति ॥३५॥



हे अम्ब ! वे महात्मा लोग मेरा कोटिशशिसम प्रसन्न-वदन, अरुण नयन, दिव्य वरप्रद रूपों को वाणी से वारंवार कहते हैं



और आनंदित हो होकर निहारते हैं ॥३५॥



तैर्दर्शनीयावयवैरुदार -



विलासहासेक्षित वामसूक्तैः ।



हृतात्मनो हृतप्राणांश्च भक्ति-



रनिच्छतो मे गतिमण्वीं प्रयुक्ते ॥३६॥



दर्शन योग्य रूप, उदार विलास हास, अवलोकन, संभाषण अत्यन्त मनोहर सूक्तों से जिनके प्राण व मन और इन्द्रियों को



वश में कर लिया है उनको विना इच्छा के भी सूक्ष्म गति देता है॥३६॥



अथो विभूतिं मम मायाविनस्ता-



मैश्वर्यमष्टांगमनुप्रवृत्तम् ।



श्रियं भागवतीं वाऽस्पृहयति भद्रां



परस्य मे तेऽश्नुवते तु लोके ॥३७॥



न कर्हिचिन्मत्पराः शांतरूपे



नंक्ष्यंति नो मेऽनिमिषो लेढि हेतिः ।



येषामहं प्रिय आत्मा सुतश्च



सखा गुरुः सुहृदो दैवमिष्टम् ॥३८॥



इसलिये विभूति, ऐश्वर्य, अष्टाङ्गन्योग से भागवती श्री कल्याण-दायिनी भक्ति के पश्चात् आप ही प्राप्त होते हैं जो सत्पुरुष मुझ में परायण हैं,



वे शान्तरूप कभी नाश नहीं होते और मेरा कालचक्र उनको नहीं मार सकता क्योंकि जिनका मैं प्रिय आत्मा हूं, पुत्र के तुल्य प्रतिपालक,



मित्र के समान विश्वासी, गुरु के सदृश उपदेशक, भ्राता के समान हितकारी और देवता वत्र पूज्यवर हूं ॥३७-३८ll



इमं लोकं तथैवामुमात्मानमुपयायिनम् ।



आत्मानमनु ये चेह ये रायः पशवो गृहाः॥३९॥



इस लोक और परलोक को और दोनों लोकों में जानेवाले आत्मा को और आत्मा के पीछे जो यहां धन, पशु, गृह इत्यादिक और वस्तु हैं ॥३९॥



विसृज्य सर्वानन्यांश्च मामेवं विश्वतोमुखम् ।



भजंत्यनन्यया भक्त्या तान्मृत्योरतिपारये ॥४०॥



उनको सबको त्यागकर और विश्वमुख मुझ को जो अनन्यभाव से भजते हैं उनको मैं संसारसागर से पार उतार देता हूं ॥४०॥



नान्यत्र मद्भगवतः प्रधानपुरुषेश्वरात् ।



आत्मनः सर्वभूतानां भयं तीव्रं निवर्तते ॥४१॥



भगवान् पुरुषेश्वर और सब पदार्थों का आत्मा व अधिष्ठाता जो मैं हूं, मेरी शरणागत बिना आत्मा को सब जीव का तीव्रभय कभी



निवृत्त नहीं हो सकता ॥४१॥



मद्भयाद्वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति मद्भयात् ।



वर्षतींद्रो दहत्यग्निर्मृत्युश्चरति मद्भयात् ॥४२॥



मेरे भय से पवन चलता है, सूर्य तपता है, इंद्र जल वर्षाता है, अग्नि दाह करता है और मृत्यु संसार में घूमता फिरता है ॥४२॥



ज्ञानवैराग्ययुक्तेन भक्तियोगेन योगिनः ।



क्षेमाय पादमूलं मे प्रविशंत्यकुतोभयम् ॥४३॥



ज्ञान वैराग्ययुक्त भक्ति योग से योगीजन अपनी कुशल के लिये निर्भय हो मेरे चरणारविंद का आश्रय लेते हैं ॥४३॥



एतावानेव लोकेऽस्मिन्पुंसां निश्श्रेयसोदयः ॥



तीव्रेण भक्तियोगेन मनो मय्यर्पितं स्थिरम् ॥४४॥



पुरुषों को आनंद का हेतु इस लोक में इतना ही है कि तीब्र भक्ति योग से स्थिर मन मुझमें अर्पित करें ॥४४॥



इति श्रीकपिलगीतायां भाषाटीकायां भक्ति लक्षण वर्णनं नाम प्रथमोऽध्यायः ॥१॥