कपिल गीत - द्वितीयोऽध्यायः २


द्वितीयोऽध्यायः २



श्रीभगवानुवाच :



अथ ते संप्रवक्ष्यामि तत्त्वानां लक्षणं पृथक् ।



यद्विदित्वा विमुच्येत पुरुषः प्राकृतैर्गुणैः ॥१॥



श्रीभगवान् बोले कि अब मैं तुम को तत्त्वों के लक्षण पृथक् सुनाता हूं, जिनके जानने से पुरुष प्रकृति के गुणों से मुक्त हो जाता है ॥१॥



ज्ञानं निःश्रेयसार्थाय पुरुषस्यात्मदर्शनम् ।



यदाहुर्वर्णये तत्ते हृदयग्रंथिभेदनम् ॥२॥



पुरुष के आत्मा का दर्शन जो ज्ञान मोक्ष के लिये है सो तुम से वर्णन करता हूं, वही ज्ञान हृदय की ग्रन्थि का भेदन करने वाला है ॥२॥



अनादिरात्मा पुरुषो निर्गुणः प्रकृतेः परः ।



प्रत्यग्धामा स्वयंज्योतिर्विश्वं येन समन्वितम् ॥३॥



अनादि, आत्मा, पुरुष, निर्गुण, प्रकृति से परे, पूजनीय, तेज का आप ज्योति स्वरूप हैं, जिससे यह विश्व प्रकाशित है ॥३॥



स एष प्रकृतिं सूक्ष्मां देवीं गुणमयीं विभुः ।



यदृच्छयैवोपगतामभ्यपद्यत लीलया ॥४॥



सो यह प्रभु सूक्ष्म, दैवी, गुणमयी, स्वेच्छा से प्राप्त प्रकृति को लीला कर के प्राप्त हुए l यहां यह सिद्धान्त है



"आवरणशक्ति और विक्षेपशक्ति भेद से प्रकृति दो प्रकार की है । आवरण- शक्ति जो है वही जीवों की उपाधि अविद्या है,



और विक्षेप शक्ति जो है वह परमात्मा की माया है और पुरुष भी जीव और ईश्वर दो प्रकार का है, जो प्रकृति अज्ञान से संसार में



आता है वह तो जीव है और जो प्रकृति को वश में कर के विश्व की सृट्यादि करता है वह ईश्वर है " ॥४॥



गुणैर्विचित्राः सृजतीं सरूपाः प्रकृतिं प्रजाः ।



विलोक्य मुमुहे सद्यः स इह ज्ञानगूहया ॥५॥



ज्ञान को ढकने वाली माया को विचित्र अपने समान प्रजा को गुणों से रचती देख सो जीव ज्ञानचेष्टा से मोहित हो अपने



स्वरूप को भूल गया, अर्थात् मैं देह हूं, यह समझने लगा ॥५॥



एवं पराभिध्यानेन कर्तृत्वं प्रकृतेः पुमान् ।



कर्मुस क्रियमाणेषु गुणैरात्मनि मन्यते ॥६॥



इसप्रकार परमेश्वर के ध्यान से और प्रकृति के करे हुये गुणों से कर्म करने पर भी यह जीव कहता है कि,



मैं कर्म करता हूँ, कर्ता भाव को आत्मा में मानता है ॥६॥



तदस्य संसृतिर्बंधः पारतंत्र्यं च तत्कृतम् ।



भवत्यकर्तुरीशस्य साक्षिणो निर्वृतात्मनः॥७॥



यद्यपि यह पुरुष साक्षीमात्र है, इस कारण अकर्ता है तो भी इस अकर्ता को ही अपने में कर्मत्व धर्म को मानने से ही कर्मों का बंधन होता है;



और जो किसी के आधीन नहीं है, उसी को भोगो में पराधीनता होती है, और जो सुखात्मक है उसको जन्म एवं मृत्यु प्रवाह होता है ॥७॥



कार्यकारणकर्तृत्वे कारणं प्रकृतिं विदुः ।



भोक्तृत्वे सुखदुःखानां पुरुषं प्रकृतेः परम् ॥८॥



कार्य कारण कर्तृत्व में कारण प्रकृति को जानो सुखदुःख के भोक्ता प्रकृति से परे पुरुष है ॥८॥



  देवहूतिरुवाच



प्रकृतेः पुरुषस्यापि लक्षणं पुरुषोत्तम ।



ब्रूहि कारणयोरस्य सदसच्च यदात्मकम् ॥९॥



देवहूती बोली कि हे पुरुषोत्तम प्रकृति पुरुप का लक्षण कहो और इनका सत् असत् आत्मा का कारण है तो कहो ll९ll



श्रीभगवानुवाच



यत्तत्त्रिगुणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम् ।



प्रधानं प्रकृति प्राहुरविशेषं विशेषवत् ॥१०॥



श्रीभगवान् बोले कि,

स्वतः विशेष अर्थात् भेदरहित होने पर भी जो सर्व विशेषों का आश्रय और प्रधान तत्त्व है उसे प्रकृति कहते हैं,



क्या ब्रह्म को प्रकृति कहते हो ? नहीं वह त्रिगुण है और बल गुण रहित है, वह क्या महत्तत्त्वादि हैं ! नहीं, वह कार्य नहीं हैंl



महत्तत्त्वादि कार्य हैंl क्या काल आदि है ? नहीं वह कार्य कारण रूप हैं,काल कार्य कारण रूप नहीं है, 'तब क्या जीव प्रकृति है ?



नहीं, यह नित्य है ॥१०॥



पंचभिः पंचभिर्ब्रह्म चतुर्भिर्दशभिस्तथा ।



एतच्चतुर्विंशतिकं गणं प्राधानिकं विदुः॥११॥



पांच , चार और दश यह चौबीस तत्त्वों का समूह प्रकृति की बनावट होने से प्राकृतिक कहलाता है ॥११॥



महाभूतानि पंचैव भूरापोऽनिर्मरुन्नभः ।



तन्मात्राणि च तावंति गंधादीनि मतानि मे ll१२ll



पृथ्वी, जल, पवन, अग्नि, आकाश, ये पांच महाभूत होते हैं; और गन्ध, रूप, रस, स्पर्श और शब्द ये पांच तन्मात्रा हैं ॥१२॥



इन्द्रियाणि दश श्रोत्रं त्वग्दृग्रसननासिकाः ।



वाक्करौ चरणौ मेढ्रं पायुर्दशम उच्यते ॥१३॥



नासिका, त्वचा, दृष्टि, जिह्वा, श्रोत्र, ये पांच ज्ञानेन्द्रिय; वाक्, कर, चरण, शिश्न, गुदा, ये पांच कर्मेन्द्रिय हैं, यह मिलकर दश इन्द्रियें हुई ॥१३॥



मनो बुद्धिरहंकारश्चित्तमित्यंतरात्मकम् ।



चतुर्धा लक्ष्यते भेदो वृत्त्यालक्षणरूपया॥१४॥



मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त ये आत्मा के भीतर हैं, लक्षण, रूप धृतियों से चार प्रकार का भेद लक्षित होता है ॥१४॥



एतावानेव संख्यातो ब्रह्मणः सगुणस्य ह ।



सन्निवेशो मया प्रोक्तो यः कालः पंचविंशकः ॥१५॥



सगुणरूप का इतना ही व्याख्यान है; यह संक्षेपमात्र मैंने तुम से कहा, जो काल है वह भी माया की ही एक अवस्था पचीस तत्त्व होकर रहती है ॥१५॥



प्रभावं पौरुषं प्राहुः कालमेके यतो भयम् ।



अहंकारविमूढस्य कर्तुः प्रकृतिमीयुषः ॥१६॥



जो पुरुष अहंकार वश हो मूढता से कहते हैं कि, यह काल परमेश्वर का प्रभाव है और देह हम हैं इस प्रकार अज्ञानता से



देहाभिमानी पुरुष को जगत् का भय बना रहता है ॥१६॥



प्रकृतेर्गुणसाम्यस्य निर्विशेषस्य मानवि ।



चेष्टा यतः स भगवान्काल इत्युपलक्षितः ॥१७॥



हे माता ! जिसको कोई विशेष नहीं, त्रिगुण साम्य भाव ही जिस का स्वरूप है, प्रकृति की चेष्टा काल है, जिससे भगवान का अनुमान होता है ॥१७॥



अन्तः पुरुषरूपेण कालरूपेण यो बहिः ।



समन्वेत्येष सत्त्वानां भगवानात्ममायया ॥१८॥



जो भगवान् अपनी माया से सब जीवमात्र के भीतर प्राप्त हो रहे हैं, भीतर पुरुष से और बाहर कालरूप से रहते हैं ॥१८॥



दैवात्क्षुभितधर्मिण्यां स्वस्यां योनौ परःपुमान् ।



आधत्त वीर्यं साऽसूत महत्तत्त्वं हिरण्मयम् ॥१९॥



दैव से क्षोभ को जिसके धर्म प्राप्त हुए, ऐसी अपनी योगमाया में परंपुरुष ने हिरण्यमय महत्तत्त्व को रचा ॥१९॥



विश्वमात्मगतं व्यंजन्कूटस्थों जगदंकुरः ।



स्वतेजसाऽपिबत्तीव्रमात्मप्रस्वापनं तमः॥२०॥



अपने भीतर विश्व को जो धारण किया था उसको प्रकट किया और सर्वान्तः स्थिर जगत् का अंकुर महत्तत्त्व को अपने आप सुलानेवाले तमको



अपने तेज से पी लिया ॥२०॥



यत्तत्सत्त्वगुणं स्वच्छं शांतं भगवतः पदम् ।



यदाहुर्वासुदेवाख्यं चित्तं तन्महदात्मकम्॥२१॥



जो सत्त्वगुण स्वच्छ शांत राग द्वेष रहित, भगवत् का उत्तम स्थान है, जिसको वासुदेव कहते हैं, महत्तत्त्वरूप चित्त है,



 पंडित लोग इसमें यह सिद्धान्त करते हैं, कि उपास्य वासुदेव है, क्षेत्रज्ञ अधिष्ठाता है l इसीप्रकार उपास्य व अहंकार में संकर्षण उपास्य हैं, रुद्र



अधिष्ठाता है मन में अनिरुद्ध उपास्य हैं, चंद्रमा अधिष्ठाता है, बुद्धि में प्रद्युम्न उपास्य है ब्रह्म अधिष्ठाता है ॥२१॥



स्वच्छत्वमविकारित्वं शांतत्वमितिचेतसः ।



वृत्तिभिर्लक्षणं प्रोक्तं यथाऽपां प्रकृतिः परा ॥२२॥



पृथ्वी का संसर्ग होने से प्रथम जैसे जल की स्थिति स्वच्छ और शांत होती है तैसे ही दूसरे विकार के प्राप्त होने से प्रथम स्वच्छता अर्थात्



भगवान् के विभव का ग्रहण करना, लय विक्षेप शुन्य होना, शांत होना, इन वृत्तियों द्वारा महतत्त्व का लक्षण कहा जाता है ॥२२॥



महत्तत्त्वाद्विकुर्वाणाद्भगवद्वीर्यसंभवात् । क्रियाशक्तिरहंकारस्त्रिविधः समपद्यत ॥२३॥



भगवत् के वीर्य से जिसकी उत्पत्ति ऐसा महत्तत्त्व विकार को प्राप्त हुआ, तब क्रियाशक्ति अहंकार त्रिविध उत्पन्न हुआ ॥२३॥



वैकारिकस्तैजसश्च तामसश्च यतो भवः ।



मनसश्चेन्द्रियाणां च भूतानां महतामपि ॥२४॥



वैकारिक, तैजस, तामस, जिससे हों, वह मन इन्द्रियें पंचभूत महत्त्व इनसे प्रगट होते हैं ॥२४॥



सहस्रशिरसं साक्षाद्यमनंतं प्रचक्षते ।



संकर्षणाख्यं पुरुषं भृतेंद्रियमनोमयम् ॥२५॥



अहंकार के उपास्य देवता भगवान् शेषजी हैं जिनके सहस्र शीश हैं उनको साक्षात अनंत कहते हैं, वे संकीर्ण पुरुष हैं: भूतइन्द्रिय मनोमय हैं ॥२५॥



कर्तृत्वं करणत्वं च कार्यत्वं चेति लक्षणम् ।



शांतघोरविमूढत्वमिति वा स्यादहंकृतेः ॥२६॥



कर्तृत्व करणत्व कार्यत्व, शांतत्व, घोरत्व, विमूढत्व यह अहंकार का लक्षण हैं ॥२६॥



वैकारिकाद्विकुर्वाणान्मनस्तत्त्वमजायतः ।



यत्संकल्पविकल्पाभ्यां वर्तते कामसंभवः ॥२७॥



जब सात्विक अहंकार विकार को प्राप्त होता है: तब मनस्तत्त्व प्रगट होता है और संकल्प, विकल्प से जो कामना उत्पन्न होती है



वह मन का लक्षण है ॥२७॥



यद्विदुर्ह्यनिरुद्धाख्यं हृषीकाणामधीश्वरम् ।



शारदेंदीवरश्यामं संराध्यं योगिभिः शनैः॥२८॥



सब इन्द्रियों के अधीश्वर, शरद् काल के नील कमलसमान, श्यामस्वरूप, योगियों से सुन्दर आराधन करने के योग्य उनको अनिरुद्ध कहते हैं ॥२८॥



तैजसात्तु विकुर्वाणाद् बुद्धितत्वमभूत्सति ।



द्रव्यस्फुरणविज्ञानमिंद्रियाणामनुग्रहः ॥२९॥



जननि ! तैजस अहंकार तत्त्व जब विकार को प्राप्त हुआ, तब बुद्धितत्त्व उत्पन्न हुआ; इसमें द्रव्य का स्फुरणज्ञान इन्द्रियों का अनुग्रह होता है ॥२९॥



संशयोऽथ विपर्यासो निश्चयः स्मृतिरेव च ।



स्वाप इत्युच्यते बुद्धेर्लक्षणं वृत्तितः पृथक् ॥३०॥



संशय, मिथ्याज्ञान, निश्चय, स्मृति, निद्रा ये बुद्धि के लक्षण हैं सब वृत्तियों से पृथक् ॥३०॥



तैजसानींद्रियाण्येव क्रियाज्ञानविभागशः ।



प्राणस्य हि क्रिया शक्तिर्बुद्धेर्विज्ञानशक्तिता ॥३१॥



ज्ञानेंद्रिय और कर्मेन्द्रिय ये दशों राजस अहंकार से उत्पन्न हुई कहते हैं, क्रियाशक्ति प्राण की है और विज्ञानशक्ति बुद्धि की है,



वे दोनों राजस और अहंकार से उत्पन्न हुई हैं. इसलिये ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय भी इसी से उत्पन्न हुई हैं  ॥३१॥



तामसाच्च विकुर्वाणाद्भगवद्वीर्यचोदितात् ।



शब्दमात्रमभूत्तस्मान्नभः श्रोत्रं च शब्दगम् ॥३२॥



भगवत के वीर्य से प्रेरित तामस अहंकार जब विकार को प्राप्त हुआ, उससे शब्दमात्र प्रगट हुआ, और शब्द से नभ उत्पन्न हुआ और



शब्द की उपलब्धि करने वाली श्रोत्रइन्द्रिय, राजस और अहंकार से उत्पन्न हुईं हैं ॥३२॥



अर्थाश्रयत्वं शब्दस्य द्रष्टुर्लिंगत्वमेव च ।



तन्मात्रत्वं च नभसो लक्षणं कवयो विदुः ॥३३॥



शब्द से सब पदार्थों के नाम होते हैं, जो मनुष्य दृष्टि में नहीं आता तो भी वह किसी पदार्थ को देखकर उसके चिह्न मात्र का ज्ञान होना,



उसकी मात्रा जाननी यह कवियों ने आकाश का लक्षण कहा है, शब्द के अर्थ को अर्थात् जिससे सब पदार्थों के नाम रखे जाते हैं जानना



और देखनेवाले के चिह्नमात्र का ज्ञान न होना और उसकी मात्रा को पहिचानना यह बुद्धिमानों ने आकाश का लक्षण कहा है ॥३३॥



भूतानां छिद्रदातृत्वं बहिरंतरमेव च ।



प्राणेंद्रियात्मधिष्ण्यत्वं नभसो वृत्तिलक्षणम् ॥३४॥



सब प्राणिमात्रों में अवकाश का छिद्र रखना और बाहर भीतर व्यवहार को आश्रय देना, प्राण इन्द्रिय आत्मा में स्थान रखना



आकाश की वृत्ति का लक्षण है ॥ ३४ ॥



नभसः शब्दतन्मात्रात्कालगत्या विकुर्वतः ।



स्पर्शोऽभवत्ततो वायुस्त्वक्स्पर्शस्य च संग्रहः ॥३५॥



शब्दतन्मात्रा वाला आकाश जब काल की गति से क्षुभित हुआ तब उस से स्पर्शतन्मात्रा प्रगट हुई, उससे वायु उत्पन्न हुई



त्वचा इन्द्रिय से स्पर्श का ज्ञान होता है ॥३५॥



मृदुत्वं कठिनत्वं च शैत्यमुष्णत्वमेव च ।



एतत्स्पर्शस्य स्पर्शत्वं तन्मात्रत्वं नभस्वतः ॥३६॥



कोमलता, कठोरता; शीतलता, उष्णता यह स्पर्शरूप वाले पवन की तन्मात्रा हैं, यही स्पर्श का लक्षण है ॥३६॥



चालनं व्यूहनं प्राप्तिर्नेतृत्वं द्रव्यशब्दयोः ।



सर्वेन्द्रियाणामात्मत्वं वायोः कर्माभिलक्षणम् ॥३७॥



वृक्षादिकों के पत्तों को चलायमान करना, शब्द का ले जाना, तृणादिकों को मिलाना, प्रात कराना, सब इन्द्रियों को बल देना,



यह कर्मद्वारा वायु का लक्षण कहा है ॥३७॥



वायोश्च स्पर्शतन्मात्राद्रूपं दैवेरितादभूत् ।



समुत्थितं ततस्तेजश्चक्षूरूपोपलंभनम् ॥३८॥



जब स्पर्शवाली वायु दैव से प्रेरित हुई तब उससे रूप प्रगट हुआ, उससे तेज हुआ, उससे ग्रहण करने वाली चक्षु-इन्दिय हुई ॥३८॥



द्रव्याकृतित्वं गुणता व्यक्तिसंस्थात्वमेव च ।



तेजस्त्वं तेजसः साध्वि रूपमात्रस्य वृत्तयः ॥३९॥



हे माता ! रूप पदार्थों को आकार देता है और द्रव्य में गौणरीति से प्रतीत होना और पदार्थों की रचना के पीछे प्रतीत होना यह भी



रूपतन्मात्रा की वृत्ति हैं ॥३९॥



द्योतनं पचनं पानमदनं हिममर्दनम् ।



तेजसोवृत्तयस्त्वेताः शोषणं क्षुत्तृडेव च ॥४०॥



प्रकाश, पाचन, पान, भोजन, शीतमर्दन, भूख प्यास सुखाना ये तेज की वृत्तियें हैं ॥४०॥



रूपमात्राद्विकुर्वाणात्तेजसो दैवचोदितात् ।



रसमात्रमभूत्तस्मादंभो जिह्वारसग्रहः ॥४१॥



जब दैवइच्छा से रूपगुण वाला तेज विकारी हुआ, तब उससे रसमात्रा हुई, उससे जल हुआ उसकी ग्रहण करने बाली जीभ हुई ॥४१॥



कषायो मधुरस्तिक्तः कट्वम्ल इति नैकधा ।



भौतिकानां विकारेण रस एको विभिद्यते ॥४२॥



यह एकरस भौतिक विकार से कसैला, मधुर, चर्परा, कडुआ, खट्टा आदि अनेक भेदों को प्राप्त होता है ॥१२॥



क्लेदनं पिण्डनं तृप्तिः प्राणनाप्यायनोन्दनम् ।



तापापनोदो भूयस्त्वमंभसो वृत्तयस्त्विमाः ॥४३॥



गीलापन, गोला बांधना, तृप्ति करना, जीवन, प्यास मिटाना, नर्म करना, ताप दूर करना, कूपादि से जल निकालने पर भी



अधिक होना यह जलवृत्ति है ॥४३॥



रसमात्रा द्विकुर्वाणादंभसो दैवचोदितात् ।



गंधमात्रमभूत्तस्मात्पृथ्वी घ्राणस्तु गंधगः॥४४॥



रसगुणवाला जल, जब दैव से प्रेरित हो विकार को प्राप्त हुआ तब उसमें गंध तन्मात्रा हुई, उससे पृथ्वी हुई, नासिका से गंधग्रहण होती है ॥४४॥



करंभपूति सौरभ्यशांतोदग्रादिभिः पृथक् ।



द्रव्यावयववैषम्याद्गंध एको विभिद्यते ॥४५॥



यह एक ही गंध संसर्गवाले पदार्थों की विषमता से मिली गन्ध और सुगन्ध शांत व उग्र आदि अनेक भेदवाली होती है ॥४५॥



भावनं ब्रह्मणः स्थानं धारणं सद्विशेषणम् ।



सर्वसत्वगुणाद्भेदः पृथिवीवृत्तिलक्षणम् ॥४६॥



प्रतिमादिरूप से ब्रह्म का भावन करना, स्थान देना, धारण करना, आकाशादि कों का मठाकाशआदिरूप से



अवच्छेदक होना और सब जीवमात्र गुणों को भेदकरना यह पृथ्वी की वृत्ति का लक्षण है ॥४६॥



नभोगुणविशेषोऽर्थो यस्य तच्छ्रोत्रमुच्यते ।



वायोर्गुणविशेषोऽर्थो यस्य तत्स्पर्शनं विदुः ॥४७॥



आकाश का मुख्य गुण शब्दविषयवाली श्रोत्र इन्द्रिय कहलाती है और वायु के मुख्यगुण युक्त स्पर्श गुणवाली त्वचा इन्द्रिय कहलाती है ॥४७॥



तेजोगुणविशेषोऽर्थो यस्य तच्चक्षुरुच्यते ।



अंभोगुणविशेषोऽर्थो यस्य तद्रसनं विदुः ।



भूमेर्गुणविशेषोऽर्थो यस्य स घ्राण उच्यते ॥४८॥



तेज के मुख्य गुणरूप विषयवाली चक्षु इन्द्रिय है और जल के मुख्य गुणरस विषयवाली जिह्वा इन्द्रिय है,



पृथ्वी का मुख्यगुण गन्ध विषय वाली घ्राण इन्द्रिय कहलाती है ॥४८॥



परस्य दृश्यते धर्मो ह्यपरस्मिन् समन्वयात् ।



अतो विशेषो भावानां भूमावेवोपलक्ष्यते॥४९॥



इन पर पदार्थों का पिछले पदार्थों में संबंध होने से अपने कारण आकाशादि पदार्थों का धर्म शब्दादि कार्यरूप वायु



आदि पदाथों में अपने धर्म स्पर्शादि के संग दीखता है l इसी से पृथ्वी में चारों कारणों के धर्म शब्द, स्पर्श, रूप, रस और



अपना धर्म, गन्ध यह देखने में आते हैं ॥४९॥



एतान्यसंहत्य यदा महदादीनि सप्त वै ।



कालकर्मगुणोपेतो जगदादिरुपाविशत् ॥५०॥



जब यह महत्तत्त्वादि सातों पदार्थ परस्पर न मिले, तब इनमें और तत्त्वों में भी कालकर्मगुणों के साथ जगदादि ईश्वर ने प्रवेश किया ॥५०॥



ततस्तेनानुविद्धेभ्यो युक्तेभ्योंडमचेतनम् ।



उत्थितं पुरुषो यस्मादुदतिष्ठदसौविराट् ॥५१॥



फिर परमेश्वर के प्रवेश करने से जब यह क्षोभ को प्राप्त हुए, तब अचेतन अण्ड प्रगट हुआ, उससे विराटपुरुष हुआ ॥५१॥



एतदंडं विशेषाख्यं क्रमवृद्धैर्दशोत्तरैः ।



तोयादिभिः परिवृतं प्रधानेनावृतैर्बहिः ।



यत्र लोकवितानोऽयं रूपं भगवतो हरेः ॥५२॥



चौदह भुवनवाला यह भगवान् का स्वरूपभूत पृथ्वीरूप ब्रह्माण्ड बाहर की ओर प्रधान से घिरे हुए, जलादि सात आवरण जो क्रम से एक दूसरे से



दशगुणे बड़े हैं उनसे घिरा है॥५२॥



हिरण्मयादंडकोशादुत्थाय सलिलेशयात् ।



तमाविश्य महादेवो बहुधा निर्बिभेद खम् ॥५३ ॥



उदासीनता को त्यागन कर भगवान् महादेव ने जल में पडे हुए हिरण्मय अंडकोश में प्रवेशकर बहुत प्रकार से छिद्र कर दिये ॥५३॥



निरभिद्यतास्य प्रथमं मुखं वाणी ततोऽभवत् ।



वाण्यावह्निरथो नासे प्राणोऽतो घ्राण एतयोः ॥५४॥



मुख प्रथम प्रगट हुआ उससे वाणी हुई, उसके देवता वह्नि हुए, फिर नाक उत्पन्न हुई, जो प्राण को चलाने वाली हुई, इससे घ्राण इन्द्रिय हुई ॥५४॥



घ्राणाद्वायुरभिद्येतामक्षिणी चक्षुरेतयोः ।



तस्मात्सूर्योव्यभिद्येतां कर्णौ श्रोत्रं ततो दिशः ॥५५॥



घ्राण से वायु उत्पन्न हुई l इन दोनों से अक्षिणी चक्षु हुए, उससे सूर्य उत्पन्न हुआ, फिर कान प्रगट हुए उसमें श्रोत्र इन्द्रिय हुई,



उनसे दशों दिशा प्रगट हुईं ॥५५॥



निर्बिभेद विराजस्त्वग्रोमश्मश्वादयस्ततः ।



तत औषधयश्चासन् शिश्नं निर्बिभिदे ततः ॥५६॥



फिर विराट् की त्वचा निकली, उसमें रोम, मूँछ, केश आदि हुए, उनसे सब ओषधि उत्पन्न हुईं, फिर शिश्नेंद्रिय हुई ॥५६॥



रेतस्तस्मादाप आसन्निरभिद्यत वै गुदम् ।



गुदादपानोपानाच्च मृत्युलोकभयंकरः ॥५७॥



उसमें जलरूप वीर्य उत्पन्न हुआ, फिर गुदा उत्पन्न हुई, गुदा में अपान रहता है; अपानवायु से लोकों की भय देनेवाली मृत्यु प्रगटी॥५७॥



हस्तौ च निरभिद्येतां बलं ताभ्यां ततः स्वराट् ।



पादौ च निरभिद्येतां गतिस्ताभ्यां ततो हरिः॥५८॥



फिर विराट् के दोनों हाथ उत्पन्न हुए, उनमें बल हुआ और इन्द्र देवता प्रगट हुए फिर विराट् के पांव निकले, उनमें गति हुई



और हरिदेवता प्रगट हुए ॥५८॥



नाड्योऽस्य निरभिद्यंत ताभ्यो लोहितमावृतम् ।



नद्यस्ततः समभवन्नुदरं निरभिद्यत ।



क्षुत्पिपासे ततः स्यातां समुद्रस्त्वेतयोरभूत् ॥५९॥



फिर नाडियां निकलीं, उनमें रुधिर भरा और नदियां प्रगटी, फिर उदर उत्पन्न हुआ, उसमें भूख प्यास हुई, सागर देवता हुआ ॥५९॥



अथास्य हृदयं भिन्नं हृदयान्मन उत्थितम् ।



मनसश्चंद्रमा जातो बुद्धिर्बुद्धेर्गिरां पतिः ।



अहंकारस्ततो रुद्रश्चित्तं चैत्यस्ततोऽभवत् ॥६०॥



फिर बिराट् का हृदय उत्पन्न हुआ, उस में मन उत्पन्न हुआ l मन में चन्द्रमा प्रगट हुआ, फिर सब वाणियों के पति बुद्धि उत्पन्न हुई,



बुद्धि से ब्रह्मा उत्पन्न हुआ l फिर हृदय में अहंकार उत्पन्न हुआ उस में क्षेत्रज्ञ अधिष्ठाता प्रगट हुए, फिर विराट् के हृदय में चित्त इन्द्रिय



उत्पन्न हुआ, और चित्त में क्षेत्रज्ञ प्रगट हुआ ॥६०॥



एते ह्यभ्युत्थिता देवा नैवास्योत्थापनेऽशकन् ।



पुनराविविशुः खानि तमुत्थापयितुं क्रमात् ।



वह्निर्वाचा मुखं भेजे नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥६१॥



यह सब देवता उत्पन्न होकर उस विराट् के देह में घुसे, परन्तु उसको उठा न सके, फिर कlम से आकाशादि कों ने



उठाने को उसमें प्रवेश किया, वाणी के मार्ग हो अग्नि ने मुख में प्रवेश किया तो भी विराट् न उठा ॥६१॥



घ्राणेन नासिके वायुर्नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।



अक्षिणी चक्षुषादित्यो नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥६२॥



प्राणइन्द्रिय सहित नाक में पवन घुसा तौ भी विराट्र न उठा, चक्षु इन्द्रिय सहित भास्कर ने नेत्रों में प्रवेश किया तो भी विराट न उठा ॥६२॥



श्रोत्रेण कर्णौ च दिशो नोदतिष्ठत्तवा विराट् ।



त्वचं रोमभिरौषध्यो नोदतिष्टत्तदा विराट्॥६३॥



श्रोत्र के संग दिशायें कान में घुसीं तो भी विराट् न उठा फिर रोमसहित सब औषधिये त्वचा में प्रविष्ट हुई तौ भी विराट न उठा ॥६३॥



रेतसा शिश्नमापस्तु नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।



गुदं मृत्युरपानेन नोदतिष्ठत्तदाविराट् ॥६४॥



वीर्यसहित जल ने शिश्न में प्रवेश क्रिया तो भी विराट् न उठा, अपान सहित मृत्यु गुदा में आई तो भी विराट् न उठा ॥६४॥



हस्ताविंद्रो बलेनैव नोदतिष्ठत्तदा विराटू ।



विष्णुर्गत्यैव चरणौ नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥६५॥



इन्द्र ने बलसहित हाथों में प्रवेश किया तो भी विराट् न उठा गतिसहित विष्णु ने चरणों में प्रवेश किया तो भी विराट सावधान न हुए ॥६५॥



नाडीर्नद्यो लोहितेन नोवतिष्ठत्तदा विराट् ।



क्षुत्तृड्भ्यामुदरं सिंधुर्नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥६६ ॥



नदियें रुधिर सहित नाडियों में घुसीं तो भी विराट् न जागा, क्षुधा तृषा सहित समुद्र ने उदर में प्रवेश किया तो भी विराट न चेता ॥६६॥



हृदयं मनसा चंद्रो नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।



बुद्धया ब्रह्मापि हृदयं नोदतिष्ठत्तदा विराट् ।



रुद्रोऽभिमत्या हृदयं नोदतिष्ठत्तदा विराट् ॥६७॥



मनसहित हृदय में चन्द्रमा ने प्रवेश किया तो भी विराट् न उठा, फिर बुद्धिसहित ब्रह्मा हृदय में बैठे तो भी विराट् न उठा,



अभिमान सहित रुद्र ने हृदय में प्रवेश किया तो भी विराट् न उठा ॥६७॥



चित्तेन हृदयं चैत्यः क्षेत्रज्ञः प्राविशद्यदा ।