तृतीयोऽध्यायः ३
श्रीभगवानुवाच
प्रकृतिस्थोपि पुरुषो नाज्यते प्राकृतैर्गुणैः ।
अविकारादकर्तृत्वान्निगुणत्वाज्जलार्कवत् ॥१॥
भगवान् कपिलदेवजी बोले कि, यद्यपि पुरुष प्रकृति में स्थित है तो भी प्रकृति के गुणों के करे हुए दुःखसुखादि गुणों में लिप्त नहीं होता,
क्योंकि पुरुष निर्विकारी होने से अकर्ता होने से निर्गुण होने से जल में सूर्य की परछांई की नाईं लिप्त नहीं होता और
उसीभाँति पुरुष देह के गुणों से भी लिप्त नहीं होता ॥१॥
स एप यर्हि प्रकृतेर्गुणेष्वभिविषज्जते ।
अहंक्रियाविमूढात्मा कर्तास्मीत्यभिमन्यते॥२॥
वही पुरुष जब गुणों में सब ओर से आसक्त हो जाता है तब कहता है कि देह मैं हूं इसप्रकार अहंकार से विमूढ बनकर
फिर कहता है कि, आत्मा का कर्ता मैं हूं, इसप्रकार सदा अभिमानी बना रहता है ॥
तेन: संसारपदवीमवशोऽभ्येत्य निर्वृतः ।
प्रासंगिकैः कर्मदोषैः सदसन्मियोनिषु ॥३॥
इसी अभिमान से बेवश होकर और सुख न पाकर सत् असत् मिश्रित योनियों में प्रकृति के संग के कर्म और दोषों से संसार के चक्र में
घूमते रहते हैं । कभी जन्म कभी मरण ॥३॥
अर्थे ह्यविद्यमानेऽपि संसृतिर्न निवर्तते ।
ध्यायतो विषयानस्य स्वप्नेऽनर्थागमो यथा ॥४॥
विचार की रीति से देखिये तो संसार कोई वस्तु ही नहीं और विषय वासनाः करने वालों से संसार छूटता ही नहीं; स्वम सब प्रकार से
झूठा है तो भी उस स्वम देखने वाले मनुष्य के वे अनर्थ उस समय नष्ट नहीं होते, अनर्थ का आगम भोगना ही पड़ता है ॥४॥
अत एव शनैश्चित्तं प्रसक्तमसतां पथि ।
भक्तियोगेन तीव्रेण विरक्त्या च नयेद्वशम् ॥५॥
इसलिये कुकर्मियों के मार्ग से आसक्त चित्त को सहज नें तीव्र भक्तियोग विरक्ति से अपने वश में करै ॥५॥
यमादिभिर्योगपथैरभ्यसञ्छ्रद्धयाऽन्वितः ।
मयि भावेन सत्येन मत्कथाश्रवणेन च ॥६॥
श्रद्धासहित योगमार्गादि कों से अभ्यास करता है और मुझ से निष्कपट प्रीति रक्खै; मेरी कथा सुनै ॥६॥
सर्वभूतसमत्वेन निर्वैरेणाप्रसंगतः ।
ब्रह्मचर्येण मौनेन स्वधर्मेण बलीयसा ॥७॥
सब जीवमात्र में समभाव वर्तें, किसी से शत्रुता न करें, कुसंग का त्याग करें, ब्रह्मचर्य धारण करें, मौनव्रत रहें,
अपना धर्म बलवान् समझकर उसमें स्थिर रहै ॥७॥
यदृच्छयोपलब्धेन संतुष्टो मितभुड् मुनिः ।
विविक्तशरणः शांतो मैत्रः करुण आत्मवान् ॥८॥
जो भगवत्इच्छा से मिल जाय उसी में संतुष्ट रहै, सूक्ष्म भोजन करै, मुनियों की वृत्ति धारण करै, एकान्त में वास करै शान्तिवृत्ति
में सब से मित्रता रखें, सबसे दयालु हो आत्मज्ञानी रहै ॥८॥
सानुबंधे च देहेऽस्मिन्न कुर्वन्नसदाग्रहम् ।
ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन प्रकृतेः पुरुषस्य च ॥९॥
कुटुम्ब सहित देह में आसक्त न हो ज्ञान से तत्त्व का दर्शन करै,प्रकृति पुरुष को देखै॥९॥
निवृत्तबुद्धयवस्थानो दूरीभूतान्यदर्शनः ।
उपलभ्यात्मनाऽऽत्मानं चक्षुषेवार्कमात्मदृक् ll१०ll
प्रकृति पुरुष का जब निश्चय विवेक हो जाता है तब बुद्धि की तीनों अवस्था जाग्रदादि से निवृत्त हो जाती हैं, उस समय सब अमंगलों से
पृथक् रहे, बुद्धि से परमात्मा को प्राप्त होय जैसे चक्षु इन्द्रियद्वारा सूर्य को देखै, उसी प्रकार अपने अहंकारावच्छिन्न आत्मा से शुद्ध
आत्मा को जानकर आत्मा का दर्शन करै ll१०॥
मुक्तलिंगं सदाभासमसति प्रतिपद्यते ।
सतो बंधुमसच्चक्षुः सर्वानुस्यूतमद्वयम् ॥११॥
इसप्रकार अभ्यास करते करते परमात्मा जो उपाधिरहित मिथ्याभूत अहंकार में सद्रूप से आभा समान माया का अधिष्ठान ब्रह्म को प्राप्त होता है,
सबन्धु असत्ं के चक्षु, सर्वत्र में परिपूर्ण हैं उनके अतिरिक्त और दूसरा कोई नहीं है ॥११॥
यथाजलस्थ आभासः स्थलस्थेनावदृश्यते ।
स्वाभासेन तथा सूर्यो जलस्थेन दिवि स्थितः ll१२ll
जैसे आकाश भास्कर का जलस्थित प्रकाश स्थलवासी पुरुष को दीखै, उसी भाँति अपने प्रकाश से सूर्य जलस्थित प्रतिबिम्ब से
स्वर्गस्थ सूर्य दीखै है ॥१२॥
एवं त्रिवृदहंकारो भूतेंद्रियमनोमयैः ।
स्वाभासैर्लक्षितोऽनेन सदाभासेन सत्यदृक् ll१३॥
इसीप्रकार तीन वृत्ति वाला अहंकार पंच भूत इन्द्रिय मनोमय अपने प्रकाश से इस सदाकाल में होने वाले आभास से सत्यष्टि ईश्वर लक्षित होता है ॥१३॥
भूतसूक्ष्मेन्द्रियमनोबुद्धयादिष्विह निद्रया ।
लीनेष्वसति यस्तत्र निर्निद्रो निरहंक्रियः॥१४॥
सुषुप्ति अवस्था में निद्रा के कारण पंचमहाभूत, उनके शब्दादिक सूक्ष्मरूप मन इन्द्रियें बुद्ध्यादिक इस संसार में निद्रा से असत् में लीन हो जाता है;
विनिद्र होकर सब अहंकार को त्याग देता है ॥१४॥
मन्यमानस्तदात्मानमनष्टो नष्टवन्मृषा ।
नष्टेऽहंकरणे दृष्टा नष्टवित्त इवातुरः ॥१५॥
तब आत्मा नष्ट तो नहीं होता है, परन्तु झूठे ही नष्टवत मानै है। जब सब अहंकार नष्ट होजाता है, तब नष्टचित्त- वाला जैसे आतुर
होता है वैसे ही ईश्वर के दर्शन की इच्छा होती है ॥१५॥
एवं प्रत्यवमृश्यासावात्मानं प्रतिपद्यते ।
साहंकारस्य द्रव्यस्य योऽवस्थानमनुग्रहः ॥१६॥
यह जीव ऐसे विचार के आत्मा को प्राप्त हो जाता है, अहंकार सहित द्रव्य की जो अवस्था है वह मेरी ही कृपा है ॥१६॥
देवहूतिरुवाच
पुरुषं प्रकृतिर्ब्रह्मन्न विमुंचति कर्हिचित् ।
अन्योन्यापाश्रयत्वाच्च नित्यत्वादनयोः प्रभो ॥१७॥
देवहूती बोली कि, हे ब्रह्मन् ! हे जनार्दन ! प्रकृति कभी पुरुष को नहीं छोडती, क्योंकि पुरुष प्रकृति के आश्रित है और प्रकृति पुरुष के आश्रित है,
इसकारण इनका बिलग होना बन नहीं सकता ॥१७॥
यथा गंधस्य भूमेश्च न भावो व्यतिरेकतः ।
अपां रसस्य च यथा तथा बुद्धेः परस्य च ॥१८॥
जैसे गंध कभी पृथ्वी से पृथक नहीं होती, गन्ध में पृथ्वी, पृथ्वी में गन्ध, जल में रस रस में जल, इसीप्रकार परमेश्वर में बुद्धि है, प्रकृति
और पुरुष का अलग होना कठिन है ॥१८॥
अकर्तुः कर्मबंधोऽयं पुरुषस्य यदाश्रयः ।
गुणेषु सत्सु प्रकृतेः कैवल्यं तेष्वतः कथम् ॥१९॥
अकर्ता पुरुष को और जिसके आश्रय से कर्म के बंधन में और प्रकृति सद्गुर्णी में यह पुरुष फँसा हुआ है उसको कैवल्य- मोक्ष
कैसे होसकता है सो कहिये ॥१९॥
क्वचित्तत्त्वावमर्शेन निवृत्तं भयमुल्बणम् ।
अनिवृत्तनिमित्तत्वात्पुनः प्रत्यवतिष्ठते ॥२०॥
यदि तत्वों का विचार करने से कभी यह संसार बंधन का तीव्र भय निवृत्त हो भी जाए, तो भी उसके निमित्तभूत प्राकृत गुणों का
अभाव न होने से वह भय फिर उपस्थित हो सकता है ॥२०॥
श्रीभगवानुवाच
अनिमित्तनिमित्तेन स्वधर्मेणामलात्मना ।
तीव्रया मयि भक्त्या च श्रुतसम्भृतया चिरम् ॥२१॥
भगवान बोले कि, हे जननि ! कोई निमित्त हो ऐसे निमित्त के धर्म करने से, मन निर्मल करने से, बहुत दिनों के शास्त्र सुनने से,
मुझमें तीव्र दृढ़ भक्ति करने से ॥२१॥
ज्ञानेन दृष्टतत्त्वेन वैराग्येण बलीयसा ।
तपोयुक्तेन योगेन तीव्रेणात्मसमाधिना ॥२२॥
तत्वदर्शन होता है, ऐसे ज्ञान से, बलवान वैराग्य से, तप सहित योगाभ्यास से, तीव्र अपनी समाधि से ॥२२॥
प्रकृतिः पुरुषस्येह दह्यमाना त्वहर्निशम् ।
तिरोभवित्री शनकैरग्नेर्योनिरिवारणिः ॥२३॥
इस पुरुष की माया दिन रात जल कर शनैः शनैः छिप जाती है, जैसे अग्नि काष्ठ को जला कर उसी में लीन हो जाती है ।
जैसे अग्नि की आदिकारणभूत लकड़ी अपने आप में से उत्पन्न हो अग्नि से आप जल कर भस्म हो जाती है, उसी प्रकार साधन दशा
में अविद्या के किये हुए देहादि अभिमान से उत्पन्न ज्ञानादि साधनों से दह्यमान प्रकृति नष्ट हो जाती है ॥२३॥
भुक्तभोगा परित्यक्ता दृष्टदोषा च नित्यशः ।
नेश्वरस्याशुभं धत्ते स्वे महिम्नि स्थितस्य च ॥२४॥
भोग भोगकर फिर उसका दोष अपने हृदय में विचार कर उसको त्याग दिया, सो प्रकृति अपनी महिमा स्थित पुरुष ईश्वर का
कभी कुछ अशुभ नहीं कर सकती॥२४॥
यथा ह्यप्रतिबुद्धस्य प्रस्वापो बह्वनर्थभृत् ।
स एव प्रतिबुद्धस्य न वै मोहाय कल्पते ॥२५॥
जैसे सोते हुए पुरुष को स्वप्न दिखाई देते हैं, जब तक वह न जागे तब तक वह स्वप्न मनुष्य को अनेक दुःख देने वाला है, वही स्वप्न
जागने पर जब उसे ज्ञान का संस्कार हुआ तो कुछ भी कष्टकारी नहीं हो सकता है ॥२५॥
एवं विदिततत्त्वस्य प्रकृतिर्मयि मानसम् ।
युञ्जतो नापकुरुत आत्मारामस्य कर्हिचित् ॥२६॥
इसीप्रकार तत्त्व के जानने वाले और मुझमें मन लगानेवाले आत्माराम को प्रकृति कभी अपने वश में नहीं कर सकती ॥२६॥
यदैवमध्यात्मरतः कालेन बहुजन्मना ।
सर्वत्र जातवैराग्य आब्रभुवनान्मुनिः ॥२७॥
इसप्रकार अनेक जन्म के साधन करने से ब्रह्मलोक तक सब पदार्थो के त्याग ने से मेरे पूर्णभक्त मेरी अनंतभक्ति से जब मेरे यथार्थ
रूप का ज्ञान उसको हो जाता है तब अध्यात्मज्ञान में उसकी प्रीति होती है, तब आत्मज्ञान से मुनि होता है ॥२७॥
मद्भक्तः प्रतिबुद्धार्थों मत्प्रसादेन भूयसा ।
निःश्रेयसं स्वसंस्थानं कैवल्याख्यं मदाश्रयम् ll२८॥
मेरा भक्त मेरी अतीव कृपा से मोक्ष का भागी होता है ।मोक्षदायक मेरा स्थान कैवल्य जिसका नाम मेरे आश्रय है उस बैकुण्ठ को ॥२८॥
प्नोतीहांजसा धीरः स्वदृशा छिन्नसंशयः ।
यद्गत्वा न निवर्त्तेत योगी लिंगाद्विनिर्गमे ॥२९॥
इस संसार में धीर अनायास से प्राप्त होते हैं, अपनी दृष्टि से सब संशय नष्ट हो जाता है, इस शरीर को त्यागकर वहां जाता हैl जहां
के गये योगीजन फिर लौटकर संसार में नहीं आते ॥२९॥
यदा न योगोपचितासु चेतो मायासु सिद्धस्य विषज्जतेंग ।
अनन्यहेतुष्वथ मे गतिः स्यादा- त्यंतिकी यत्र न मृत्युहासः ॥३०॥
हे माता ! जब योगीजनों का योग बढता है तब माया की वृद्धि होने से अणिमादिक सिद्धियाँ भी बढती हैं, उनके बढने का कुछ और
प्रयोजन नहीं है केवल वह विघ्न करने के लिये आती हैं जो उससमय भक्त का चित्त उनमें आसक्त न हुआ तो उसको मेरी
अनन्य अत्यन्त सुखदायिनी व अनपायिनी गति प्राप्त होती हैl जहां मृत्युका कुछ भय नहीं ॥३०॥
इति कपिलगीताभाषाटीकायां मोक्षरीतिवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥३॥