चतुर्थोऽध्यायः ४
श्रीभगवानुवाच
योगस्य लक्षणं वक्ष्ये सबीजस्य नृपात्मजे ।
मनो येनैव विधिना प्रसन्नं याति सत्पथम्॥१॥
भगवान् बोले कि, हे नृपात्मजे ! अब बीजसहित योग का लक्षण कहता हूं, कि जिस विधि के अनुष्ठान से प्रसन्न होकर मन
सत्पथ में लगता है ॥१॥
स्वधर्माचरणं शक्त्या विधर्माच्च निवर्तनम् ।
दैवालब्धेन संतोषआत्मविच्चरणार्चनम् ॥२॥
अपनी सामर्थ्यभर स्वधर्म का आचरण करें, पाप से अलग रहें, जो अपने भाग्य के अनुसार प्राप्त हो उसी में संतोष करै, आत्मज्ञानी पुरुषों के
चरणारविन्दों का पूजन करै ॥२॥
(*शंका-कपिलदेवजी अपनी माताले वोले कि, हे माता ! बीज सहित योग का लक्षण में तुमसे कहूंगा, ऐसा वचन अपनी माता से कहा l
परंतु योग का बीजसहित लक्षण क्यों नहीं कहा ? सो योग के बीज का लक्षण क्या है ?
उत्तर - सज्जनों की संगति मे प्रेम करना और दुष्टजनों की संगति में प्रेम न करना l ऐसा विचार कर नेत्रों से नित्य भगवान् में स्नेह देखना
और दुष्ट कर्म को बुरा देखना l यही योग के बीज का लक्षण है l और कपिलदेवजी पहिले से जानते थे कि, हमारी माता ज्ञान में
कच्ची है इसलिये योग के बीज का लक्षण कहने को प्रस्तुत थे पीछे संगति कही परंतु फिर भलीभाँति जान लिया कि
हमारी माता ज्ञान में वडी पक्की है । इसलिये योग के बीजके लक्षण कहने की क्या आवश्यक्ता है ॥)
ग्राम्यधर्मनिवृत्तिश्च मोक्षधर्मरतिस्तथा ।
मितमेध्यादनं शश्वद्विविक्तक्षेमसेवनम् ॥३॥
लौकिक सम्बन्धी धर्म से निवृत्त रहे, मोक्षधर्म में प्रीति करै,परिमित और महाशुद्ध भोजन करें, परिमित- इसको कहते हैं पेट के
दो भाग तो अन्न से भरे और एक जल, चौथा वायु के आने जाने को खाली रखे, एकान्त स्थान में वास करें । जहां किसी प्रकार की बाधा न हो ॥३॥
अहिंसा सत्यमस्तेयं यावदर्थपरिग्रहः ।
ब्रह्मचर्यं तपःशौचं स्वाध्यायः पुरुषार्चनम्॥४॥
जीवहत्या न करै, सत्य बोलै, चोरी न करै, जितने में अपना प्रयोजन सिद्ध हो उतना ही संचय करें, अधिक न करें, ब्रह्मचर्य धारण करै,
तप करै, शौच से रहै, वेद का पाठ करै, श्रीकृष्णचन्द्र आनंदकंद के चरणारविंद की वंदना करै ॥४॥
मौनं सदासनजयः स्थैर्यं प्राणजयः शनैः ।
प्रत्याहारश्चेंद्रियाणां विषयान्मनसा हृदि ॥५॥
वृथा न बोले, मौन धारण करें, आसन को जीवने का अभ्यास करै, स्थिर रहै, शनैः शनैः प्राण को जीतै, मन को और इन्द्रियों को विषय
से खींचकर हृदय में रखे ॥५॥
स्वधिष्ण्यानामेकदेशे मनसा प्राणधारणम् ॥
वैकुंठलीलाsभिध्यानं समाधानं तथात्मनः ॥६॥
सब प्राणों के स्थान जो मूलाधारादिक हैं उनमें से एकदेश में मनसहित प्राण को धारण करै, और त्रिलोकीनाथ भगवान् की लीला
का ध्यान करै, और मन को आत्माकार करै ॥६॥
एतैरन्यैश्च पथिभिर्मनो दुष्टमसत्पथम् ।
बुद्धया युंजीत शनकैर्जितप्राणो ह्यतंद्रितः॥७॥
इनसे और इनके अधिक और उपायों से और साधनों से मन को जीतै, और असत् मार्गों में जो मन लगा है उसको धीरे धीरे बुद्धि से जीतै,
और प्राण को जीतै, निरालस्य होकर रहै॥७॥
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य विजितासन आसनम् ।
तस्मिन्स्वस्तिसमासीन ऋजुकायःसमभ्यसेत् ॥८॥
पवित्र देश में रहै, विशेष कर के प्रथम तो आसन को जीतै फिर कुशाओं पर कृष्णचर्म, उसके ऊपर वस्त्र बिछाकर मांगलिक आसन मारकर बैठे,
शरीर को सीधा रखकर प्राण को वश करने का अभ्यास करै यह स्वस्तिकासन है ॥८॥
प्राणस्य शोधयेन्मार्गं पूरकुंभकरेचकैः ।
प्रतिकूलेन वा चित्तं यथास्थिरमचंचलम् ॥९॥
पूरक, कुंभक, रेचक से प्राण के मार्ग को शोध, और प्राणायामों के उलटे क्रम से चित्त का शोधन करे, जिससे यह चित फिर चंचल न
होय ऐसा स्थिर करै ॥९॥
मनोऽचिरात्स्याद्विरजं जितश्वासस्य योगिनः ।
वाय्वग्निभ्यां यथा लोहं ध्यातं त्यजति वै मलम् ॥१०॥
जिसने श्वास जीते ऐसे योगियों का मन थोडे ही दिनों में शुद्ध हो जाता है जैसे पवन अग्नि से थमा हुआ सुवर्ण, मल को त्यागकर निर्मल हो जाता है ॥१०॥
प्राणायामैर्दहेद्दोषान्धारणाभिश्च किल्बिषान् ।
प्रत्याहारेण संसर्गान्ध्यानेनानीश्वरान्गुणान् ॥११॥
प्राणायामों से तो वात, पित्त, कफ के मलों को दूर करे, और धारणा से सब पाप को दूर करे और प्रत्याहार से विषयों को दूर करै,
और ध्यान से रागादिकों को दूर करें ॥११॥
यदा मनः स्वं विरजं योगेन सुसमाहितम् ।
काष्ठां भगवतो ध्यायेत्स्वनासाऽग्रावलोकनः ॥१२॥
जब योग के प्रभाव से मन शुद्ध हो जाय तब सावधानता से भगवत् के स्वरूप का ध्यान करें और अपनी नासा के अग्रभाग को देखता रहै ॥१२॥
प्रसन्नवदनांभोजं पद्मगर्भारुणेक्षणम् ।
नीलोत्पलदलश्यामं शंखचक्रगदाधरम् ॥१३॥
वारिजसमान जिनका प्रसन्न वदन, अरुण कमलवत् नेत्र, नीलकमलदल सम श्याम वर्ण, शंख, चक्र, गदा धारणकर रहे हैं, यह ध्यान करै ॥१३॥
लसत्पंकजकिंजल्कपीतकौशेयवाससम् ।
श्रीवत्सवक्षसं भ्राजत्कौस्तुभामुक्तकंधरम् ॥१४॥
सुन्दर सरसिज केसर वत् पीताम्बर पहिरे, श्रीवत्स वक्षस्थल में देदीप्यमान है, कौस्तुभमणि मुक्तामयमाला कंठ में विराजमान है ॥१४॥
मत्तद्विरेफकलया परीतं वनमालया ।
परार्घ्र्यहारवलयकिरीटांगदनूपुरम् ॥१५॥
मत्तभ्रमरों की ध्वनि जिस पर हो रही ऐसी मनमोहनी सोहनी वनमाला धारण किये हैं, और अमूल्यहार, कंकण, किरीट, भुजबंद,
नूपुर जिनके चरणारविन्दों में दीप्यमान हैं ॥१५॥
कांचीगुणोल्लसच्छ्रोणिं हृदयांभोजविष्टरम् ।
दर्शनीयतमं शतिं मनोनयनवर्धनम् ॥१६॥
क्षुद्रघंटिकाओं से शोभित कटिपश्चात् भाग है, भक्तों के हृदय कमल में जिनका आसन है, दर्शन करने योग्यों में दर्शन योग्य शान्तचित्त
मन और नयनों का आनन्द बढानेवाला जिनका मनोहर स्वरूप है ॥१६॥
अपीच्यदर्शनं शश्वत्सर्वलोकनमस्कृतम् ।
संतं वयसि कैशोरे भक्तानुग्रहकातरम् ॥१७॥
अत्यन्त शोभायमान जिनका दर्शन है, सब लोकवासी जिनको नमस्कार और दंडवत् करते हैं. जिनकी किशोर अवस्था है, अपने
अनुचरों पर अनुग्रह करने में नित्यप्रति कुशल हैं ॥१७॥
कीर्तन्यतीर्थयशसं पुण्यश्लोकयशस्करम् ।
ध्यायेद्देवं समग्रांगं यावन्न च्यवते मनः ॥१८॥
तीर्थरूप यश जिन का कीर्तन करने योग्य है, पुण्यश्लोकों में यश करने वाले भगवान् के अंगों का ध्यान करें, अपनी नासा के अग्रभाग को देखता रहै,
जब तक कि, मन उस बांके बिहारी की मूर्ति में लय न हो जाय ॥१८॥
स्थितं व्रजंतमासीनं शयानं वा गुहाशयम् ।
प्रेक्षणीयेहितं ध्यायेच्छुद्धभावेन चेतसा ॥१९॥
दर्शन के योग्य जिनकी अलौकिक लीला है, ऐसे घटघट वासी वृन्दावन निवासी, सुखरासी मदनमोहन की चाहे विराजमान मूर्ति का चाहे
फिरते चलते स्वरूप का, चाहै शयन करती हुई श्यामसुन्दर की मूर्ति का, चाहे खडीहुई प्रतिमा का शुद्ध चित्त के भाव से ध्यान करै;
उनकी अद्भुत लीला देखने ही योग्य है ॥१९॥
तस्मिँल्लब्धपदं चित्तं सर्वावयवसंस्थितम् ।
विलक्ष्यैकत्र संयुज्यादंगे भगवतो मुनिः॥२०॥
मुनि लोग उनको चित्त में स्थान देकर, सब अवयव सुन्दरस्थित ईश्वर का दर्शन कर भगवान् के एक अंग में अपने मन को लगावै ॥२०॥
संचिंतयेद्भगवतश्चरणारविंदं
वज्राड्कुशध्वजसरोरुहलांछनाढ्यम् ।
उत्तुंगरक्तविलसन्नखचक्रवाल-
ज्योत्स्नाभिराहतमहद्धृदयांधकारम् ॥२१॥
पहिले तो वज्र, अंकुश, ध्वज पद्म इन चिह्नों से युक्त उठे हुए अरुण शोभित नखमंडल की किरणों से ध्यान करने वाले भगवान् के
चरणकमल का ध्यान करें ॥२१॥
यच्छौचनिः सृतसरित्प्रवरोदकेन
तीर्थेन मूर्ध्न्यधिकृतेन शिवः शिवोऽभूत् ।
ध्यातुर्मनः शमलशैलनिसृष्टवज्रं
ध्यायेच्चिरं भगवतश्चरणारविंदम् ॥२२॥
जिनके चरणप्रक्षालन रूप गंगाजलतीर्थ के मस्तक पर धारण करने से मंगलमय भूतनाथ और अत्यन्त मंगलरूप होगए इसीप्रकार जिन के
चरणचिह्नरूप वज्र से ध्यान करने वालों के पापरूप पर्वत चूर्ण करने वाले भगवान् के पादाम्बुज का बहुत कालतक ध्यान करै ॥२२॥
जानुद्वयं जलजलोचनया जनन्या
लक्ष्म्याखिलस्य सुरवंदितया विधातुः ।
ऊर्वोर्निधाय करपल्लवरोचिषा
यत्संलालितं हृदि विभोरभवस्य कुर्यात् ॥२३॥
सब जगत् का विधान करने वाला, विधाता ब्रह्माकी माता, साक्षात् लक्ष्मी; सब देवता सदा प्रेम प्रीति सहित दिनरात जिस के चरणारविन्द
की वन्दना करते हैं, कमल से जिसके नेत्र, वह महालक्ष्मी अजन्मा विभु के ललित उस जानुद्वय, अपने ऊरुवों पर रखकर पल्लव की कांति से
बडी लालित्यता के साथ जिनका सेवन करती हैं l उन भवभंजन भगवान के दोनों घुटनों पर्यंत युगुल जंघाओं का हृदय में ध्यान करै ॥२३॥
ऊरू सुपर्णभुजयोरधिशोभमाना- वोजोनिधी अतसिकाकुसुमावभासौ ।
व्यालंबिपीतवरवाससि वर्तमान- कांचीकलापपरिरंभि नितंबबिंबम् ॥२४॥
फिर गरुड़जी की भुजाओं में शोभित महा पराक्रमी अलसी के कुसुम समान दोनों ऊरुओं का चित्त में ध्यान करै, फिर अति लम्बा पीताम्बर
झमझमाताहुआ, उसमें वर्तमान कांचीकलाप का मिलना, ऐसे भगवान के शोभायमान नितम्ब का ध्यान करें ॥२४॥
नाभिहृदं भुवनकोशगुहोदरस्थं
यत्रात्मयोनिधिषणाखिललोकपद्मम् ।
व्यूढं हरिन्मणिवृषस्तनयोरमुष्य
ध्यायेद्द्वयं विशदहारमयूखगौरम् ॥२५॥
फिर चतुर्दश भुवनों के कोष जिनके हृदय में विराजमान जहां आत्मयोनि ब्रह्म का स्थान है, सब लोकात्मक कमल जिस में उत्पन्न हुआ था
उसके नाभि सरोवर का ध्यान करै; फिर उठेहुए मरकतमणि श्रेष्ठ विशद हारों की चटकीली किरणों से गौर वर्ण भगवान् के
दोनों स्तनों का ध्यान करें जिनकी कैसी सुन्दर शोभा है ॥२५॥
वक्षोऽधिवासमृषभस्य महाविभूतेः पुंसां मनोनयननिर्वृतिमादधानम्
कंठं च कौस्तुभमणेरधिभूषणार्थं कुर्यान्मनस्यखिललोकनमस्कृतस्य ॥२६॥
सर्वश्रेष्ठा महाविभूति श्रीलक्ष्मीजी का वासस्थान, महात्माओं के मन और नेत्रों का परम सुखदायक वक्षस्थल का मन में ध्यान करै, सब लोक
जिनको नमस्कार करते हैं, उन प्रभु के कंठ में जो कौस्तुभमणि भूषण भूषित है उसकी शोभा का चित्त में ध्यान करै ॥२६॥
बाहूंश्च मंदरगिरेः परिवर्तनेन निर्णिक्तबाहुवलयान धिलोकपालान् ।
संचिन्तयेद्दशशतारमसह्यतेजः शंखं च तत्करसरोरुहराजहंसम् ॥२७॥
फिर मंदराचल के घूमने से घिसकर जो उज्ज्वल हो गये हैं, बाहुओं के कंगन, जिन में लोकपाल देवता वास करते हैं, उन भुजाओं का ध्यान करै,
फिर जिसका अनंत तेज सहा न जाय, ऐसे हजार-धारवाले सुदर्शन का चिंतवन करै, फिर जिन भगवान के हस्तकमल में राजहंसवत्
शंख विराजमान है, उसका ध्यान करै ॥२७॥
कौमोदकीं भगवतो दयितां स्मरेत दिग्धामरातिभटशोणितकर्दमेन ।
मालां मधुव्रतवरूथगिरोपघुष्टां चैत्त्यस्य तत्त्वममलं मणिमस्य कंठे ॥२८॥
फिर वासुदेव भगवान की प्यारी कौमोदकी गदा, जो कि शत्रुवीरों के रक्त की कीच में लिपटी हुई है उसका स्मरण करें भोंरों के झुंड के झुंड
जिसपर गुंजार रहे हैं, उस भगवान् की वनमाला का ध्यान करें जो जीवात्मा की परमतत्त्व निर्मल कौस्तुभ मणि भगवान् के कंठ
में दीप रही है उसका ध्यान करै ॥२८॥
भृत्यानुकंपितधियेह गृहीतमूर्तेः संचिंतयेद्भगवतो वदनारविंदम् ।
यद्विस्फुरन्मकरकुंडलवल्गितेन विद्योतितामलकपोलमुदारनासम् ॥२९॥
अपने भृत्यों के ऊपर कृपा कर के अपनी बुद्धि से जिन्होंने मूर्तिमान अवतार धारण किये हैं, उन भगवान् के मुख कमल का
ध्यान करें कि जिस पर दमकते हुये मकराकार कुण्डलों के प्रकाश से निर्मल कपोलों की शोभा और सुघड़ जिस में नाक है ॥२९॥
यच्छ्रीनिकेतमलिभिः परिसेव्यमानं भूत्या स्वया कुटिलकुंतलवृंदजुष्टम् ।
मीनद्वयाश्रयमधिक्षिपदब्जनेत्रं ध्यायेन्मनोमयमतंद्रित उलेलसद्भ्रु ॥३०॥
श्रीजी का जहां स्थान अपने वैभव की शोभा से अमरों से सेव्यमान कुटिलकुंतल समूहयुक्त हो मीन समान का तिरस्कार करनेवाले,
मनोमय निरालस्य जिस में ऐसे श्रीभगवान् के नेत्र कमल का ध्यान करै ॥३०॥
तस्यावलोकमधिकं कृपयाऽतिघोर- तापत्रयोपशमनाय निसृष्टमक्ष्णोः ।
स्निग्धस्मितानुगुणितं विपुलप्रसादं ध्यायेच्चिरंविततभावनया गुहायाम् ॥३१॥
फिर अपनी कृपा से महाघोर अत्यन्त भयानक त्रय ताप नाश करने के लिये नेत्रों से निकस मनोहर मुसकान संयुक्त बहुत प्रसन्न होनेवाले
प्रसादयुक्त अत्यन्त भावना से हृदय में अनंतकाल तक भगवान के अवलोकन का ध्यानकरे ॥३१॥
हासं हरेरवनताखिललोकतीव्र- शोकाश्रुसागरविशोषणमत्युदारम् ।
संमोहनाय रचितं निजमाययाऽस्य भूमंडलं मुनिकृते मकरध्वजस्य ॥३२॥
प्रणतजनों के सब तीव्र शोक से प्रगट हुये अश्रुसागर को सुखा देने वाले अतिउदार श्रीभगवान् के मंदहास्य का ध्यान करें, फिर
भगवान् ने अपनी माया से जो मकरध्वज के भी मोहने के लिये रचा हैं और जो मुनिमनों को मोहित करने वाले ऐसे भूमण्डल का ध्यानकरै ॥३२॥
ध्यानायनं प्रहसितं बहुलाधरोष्ठ- भासाऽरुणायिततनुद्विजकुंदपंक्ति ।
ध्यायेत्स्वदेह कुहरेऽवसितस्य विष्णोर्भक्त्यार् द्रयार्पितमना न पृथग् दिदृक्षेत् ॥३३॥
ध्यानका स्थान प्रहसित (अधिकहास ) का ध्यान करै और अधरहोठ की कान्ति से लाल झांई के पढ़ने से कुन्दकली के दाँतों की पंक्ति भी
कुछ कुछ अरुणाई सी लिये ज्ञात होती है उनका अपने हृदयाकाश में ध्यान करें, इसप्रकार प्रेम रसीली विष्णु की भक्ति से उसी में
मन को लगावै, उसके अतिरिक्त और किसी वस्तु के देखने की चाहना न करें चित्त को उसी में स्थिर रखें ॥३३॥
एवं हरौ भगवति प्रतिलब्धभावो भक्त्या द्रवद् धृय उत्पुलकः प्रमोदात् ।
औत्कंठयबाष्पकलया मुहुरर्द्यमान- स्तच्चापि चित्तबडिशं शनकैर्वियुक्ते ॥ ३४ ॥
इसप्रकार भगवान् का ध्यान करते करते भाव में हरि में लोभ कर भक्ति से द्रवीभूत हृदय में अत्यन्त आनन्द प्रफुल्लित हो जाय
और भगवत से मिलने की अति उत्कण्ठा से अश्रुपात कर के बारंबार पीड़ित धीर से चित्ररूप मत्स्यवेधन काँटे के सदृश उसे
शनैः शनैः भगवत् के अंगं से ध्यान न्यून करदे ॥३४॥
मुक्ताश्रयं यर्हि निर्विषयं विरक्तं निर्वाणमृच्छति मनः सहसा यथाऽर्चिः ।
आत्मानमत्र पुरुषोऽव्यवधानमेकमन्वीक्षते प्रतिनिवृत्तगुणप्रवादः ॥३५॥
मुक्तों के आश्रय जब निर्विषय विरक्तमन सहसा सूर्य की सदृश मोक्ष को प्राप्त हो जाता है, जब पुरुष आत्मा को आनंदमय एकरूप
देखते है l तब संसार से निवृत्त हो जाता है ॥३५॥
सोऽप्येतया चरमया मनसो निवृत्त्या तस्मिन्महिम्न्यवसितः सुखदुःखबाह्ये ।
हेतुत्वमप्यसति कर्तरि दुःखयोर्यत्स्वात्मन्विधत्त उपलब्धपरात्मकाष्ठः ॥३६॥
इसप्रकार मन की अंतिम निवृत्ति से सुखदुःख सहित ब्रह्म रूप में स्थित हुआ योगी, सुखदुःख का भोगना, जो पहले अपने
स्वरूप में विदित होता था, उसे अविद्या से उत्पन्नहुए अहंकार में त्याग देता है, अर्थात् सुखदुःख का भोक्तापन के असद् अहंकार में ही है,
मुझ में नहीं है, ऐसे देखता है, क्योंकि आत्मतत्त्व प्रत्यक्ष दीखता है, अर्थात् हो चुका है ॥३६॥
देहं च तं न चरमः स्थितमुत्थितं वा सिद्धो विपश्यति यतोऽध्यगमत्स्वरूपम् ।
दैवादुपेतमथ दैववशादपेतं वासो यथा परिवृतं मदिरामदांधः ॥३७॥
पहले कहे हुए लक्षण से सिद्ध हुआ योगी अपनी देह को भी नहीं देखता, फिर सुखदुःख को क्योंकर देखै ? जैसे मदमत्त मनुष्यों को
पहने हुए वस्त्र का ज्ञान नहीं रहता इसी प्रकार योगी को अपने शरीर का ज्ञान नहीं रहता, मत्त पुरुष का वस्त्र प्रारब्ध से जाता रहै,
या रह जाय उसको उसकी सुधि नहीं रहती, इसीप्रकार योगी का देह चाहै आसन पर रहै या चला जाय उसे उसकी सुधि नहीं रहती ॥३७॥
देहोऽपि दैववशगः खलु कर्म याव - त्स्वारंभकं प्रतिसमीक्षत एव सासुः ।
तं सप्रपंचमधिरूढसमाधियोगः स्वाप्नं पुनर्न भजते प्रतिबुद्धवस्तुः ॥३८॥
प्रारब्ध के अधीन हुआ उसका देह जब तक उसका प्रेरक हो तब तक इन्द्रियसहित जीता रहता है, परन्तु समाधिपर्यन्त योग को प्राप्त हुआ
आत्मस्वरूप का ज्ञाता योगी स्वप्न अवस्था की देह के समान, मैं और मेरा, कर के नहीं जानता ॥३८॥
यथा पुत्राच्च वित्ताच्च पृथङ्मर्त्यः प्रतीयते ।
अप्यात्मत्वेनाभिमताद्देहादेः पुरुषस्तथा ॥३९॥
जैसे पुत्र धन से पुरुष अपने आपको अलग मानता है, ऐसे ही आत्मभाव मानकर अभिमान देहादिक से ईश्वर को पृथक् मानता है, ॥३९॥
यथोल्मुकाद्विस्फुलिंगाद्धूमाद्वाऽपि स्वसंभवात् ।
अप्यात्मत्वेनाभिमतात्तद्यथाग्निः पृथगुल्मुकात् ॥४०॥
जैसे अज्ञानी मनुष्य ज्वलितकाष्ठ से चिनगारी को और धूएँ को पृथक् मानते हैं, परन्तु वास्तव में दाहक और प्रकाशक अग्नि से अलग है,
इसप्रकार सब ब्रह्ममय ही है ॥४०॥
भूतेंद्रियान्तःकरणात् प्रधानाज्जीवसंज्ञितात् ।
आत्मा तथा पृथग्दृष्टा भगवान् ब्रह्मसंज्ञितः ॥४१॥
जैसे पंचभूत इन्द्रियें अन्तःकरण प्रधान जीव संज्ञा से आत्मा अलग है, इसीप्रकार द्रष्टा भगवान ब्रह्म पृथक् है ॥४१॥
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षेतानन्यभावेन भूतेष्विव तदात्मताम् ॥४२॥
जैसे सब प्राणिमात्र में आत्मा व्यापै है और सब जीवमात्र आत्मा में व्यापै हैं, इसीप्रकार सब पदार्थों में मैं हूं और मुझ में सब पदार्थ हैं
ऐसे अनन्यभाव कर के सब प्राणियों में तदात्मता से देखते हैं, वे सिद्ध हैं ॥४२॥
स्वयोनिषु यथा ज्योतिरेकं नाना प्रतीयते ।
योनीनां गुणवैषम्यात्तथात्मा प्रकृतौ स्थितः ॥४३॥
जिस प्रकार एक ही अग्नि अपने पृथक-पृथक आश्रयों में उनकी विभिन्नता के कारण भिन्न भिन्न आकार का दिखाई देता है उसी प्रकार
देव-मनुष्यादि शरीरों में रहने वाला एक ही आत्मा अपने आश्रयों के गुणभेद के कारण भिन्न-भिन्न प्रकार का भासता है ॥४३॥
तस्मादिमां स्वां प्रकृतिं देवीं सदसदात्मिकाम् ।
दुर्विभाव्यां पराभाव्य स्वरूपेणावतिष्ठते ॥४४॥
अतः भगवान का भक्त जीव के स्वरूप को छिपा देने वाली कार्यकारण रूप से परिणाम को प्राप्त हुई भगवान की इस अचिन्त्य
शक्तिमयी माया को भगवान की कृपा से ही जीतकर अपने वास्तविक स्वरूप -ब्रह्मरूप में स्थित होता है ॥४४॥
इति श्रीकपिलगीतायां "साधनानुष्ठानं" नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥