पञ्चमोऽध्यायः ५
देवहूतिरुवाच
लक्षणं महदादीनां प्रकृतेः पुरुषस्य च ।
स्वरूपं लक्ष्यतेऽमीषां येन तत्परमार्थिकम् ॥१॥
देवहूती बोली कि, हे प्रभो ! महत्तत्वादि का लक्षण और प्रकृति पुरुष का स्वरूप परमार्थिक जैसा होय और जिस प्रकार से
इनका ज्ञान होय सो कहो ॥१॥
यथा सांख्येषु कथितं यन्मूलं तत्प्रचक्षते ।
भक्तियोगस्य मे मार्गं ब्रूहिं विस्तरशः प्रभो ॥२॥
हे भगवन् ! जैसे सांख्यशास्त्र में इनकी मूल आपने कहीं, परन्तु उसके कहने का अभिप्राय भक्तियोग है, इसकारण भक्तियोग का मार्ग
मुझ से विस्तार सहित आप कहिये ॥२॥
विरागो येन पुरुषो भगवन्सर्वतो भवेत् ।
आचक्ष्व जीवलोकस्य विविधा लोकसंसृतीः ॥३॥
हे जगत्पते ! जिससे इस पुरुप को सब ओर से वैराग्य उत्पन्न हो जाय ऐसा लोक का अनेक प्रकार का आवागमन हैं सो कहो॥३ ॥
कालस्येश्वररूपस्य परेषां च परस्य ते ।
स्वरूपं बत कुर्वेति यद्धेतोः कुशलं जनाः॥४ ॥
और ईश्वररूप काल का स्वरूप कहो, जिसके भय से लोग कुशल कर्म करते हैं ॥४॥
लोकस्य मिथ्याभिमतेरचक्षुषश्चिरं प्रसुप्तस्य तमस्यनाश्रये ।
श्रांतस्य कर्मस्वनुविद्धया धिया त्वमाविरासीः किल योगभास्करः ॥५॥
झूठे, अभिमानी, शरीरादिक पदार्थों में अहंकार करनेवाले, अज्ञानी, कर्मासक्त, निराधार, अहंकार में बहुत दिन से सोये हुए,
कर्म करते करते श्रमिक हो गये, ऐसे शठलोगों के चैतन्य करने के लिये और उनकी निर्मलबुद्धि करने के अर्थ योग शास्त्र का प्रकाश
करने को आप इस जगत् में सूर्यरूप उत्पन्न हुए ॥५॥
मैत्रेय उवाच
इति मातुर्वचः श्लक्ष्णं प्रतिनन्द्य महामुनिः ।
आबभाषे कुरुश्रेष्ठ प्रीतस्तां करुणाऽर्दितः॥६॥
मैत्रेयजी बोले कि, हे कुरुश्रेष्ठ विदुर । इस प्रकार माता के बहुत मीठे वचनों की सराहना कर, महामुनि कपिलजी ने अत्यन्त प्रसन्न हो प्रीति
से भरे करुणा से पीडित मीठे वचन कहे ॥६॥
श्रीभगवानुवाच
भक्तियोगो बहुविधो मार्गेर्भामिनि भाव्यते ।
स्वभावगुणमार्गेण पुंसां भावो विभिद्यते ॥७॥
श्रीभगवान बोले कि, हे जननी ! भक्तियोग अनेक प्रकार का है और बहुत मार्गों से प्रकाशित होता है, पुरुषों की प्रकृति सतरजतमोगुण के
होने से उनके संकल्प में भेद पड़ जाता है ॥७॥
अभिसन्धाय यो हिंसां दंभं मात्सर्यमेव वा ।
संरंभी भिन्नदृग्भावं मयि कुर्यात्स तामसः ॥८॥
संकल्प से, हिंसा से, दंभ से, मत्सरता से, क्रोध से, भिन्न दृष्टि का भाव मुझ में करते हैं, वह तामसी भक्ति है ॥८॥
विषयानभिसंधाय यश ऐश्वर्यमेव वा ।
अर्चादावर्चयेद्यो माँ पृथग्भावः स राजसः ॥९॥
विषयभोग की चाहना कर यश ऐश्वर्य के लिये जो अर्चादि कर्मों में मेरी भावना करते हैं वह राजसी भक्ति है ॥९॥
कर्मनिर्हारमुद्दिश्य परस्मिन्वा तदर्पणम् ।
यजेद्यष्टव्यमिति वा पृथग्भावः स सात्त्विकः ॥१०॥
पाप नाशने के उद्देश से अथवा सिद्धि साधने के उद्देश से मूर्ति आदि में जो कर्म करै अथवा जो पूजन करै उसमें यह मानें कि, भगवत्की आज्ञा है
इसलिये पूजन के ही योग्य है, ऐसे भाव से जो भक्ति करते हैं, वह सात्त्विकी भक्ति है इसका प्रयोजन यह है कि श्रवण कीर्तनादि जो नवधा भक्ति है,
वही फल देने के लिये तीन प्रकार की तामस, तीन प्रकार की राजस, तीन प्रकार की सात्त्विक भक्ति होने से सत्ताईस (२७) प्रकार की हुई,
और सुनने से एक एक में नौ नौ भेद होजाते हैं; तब इक्यासी (८१) प्रकार की हो जाती है यह सगुण- भक्ति के भेद हैं ॥१०॥
मगुणश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये ।
मनोगतिरविच्छिन्ना यथा गंगाम्भसोऽबुधौ ॥११॥
मेरे गुण के श्रवण मात्र से मैं जो अन्तर्यामी हूं मुझमें से कभी न निकले, इसप्रकार मन की गति लगावै, जैसे गंगाजल धाराप्रवाह से समुद्र में
लय होजाता है, फिर नहीं लौटता, ऐसे ही ईश्वर में लीन होजाय भेद न रखे ॥११॥
लक्षणं भक्तियोगस्य निर्गुणस्य ह्युदाहृतम् ।
अहैतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तमे ॥१२॥
निर्गुण भक्तियोग का यह लक्षण है पुरुषोत्तम फलानुसन्धान भेदभावरहित भक्ति करै, श्रीपति के अतिरिक्त दूसरे की आशा न करै ॥१२॥
सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत ।
दीयमानं न गृह्णन्ति विना मत्सेवनं जनाः ॥१३॥
मेरे साथ एकलोक में वास, समान ऐश्वर्य, सदा निकट रहै, मेरे समान रूप होजाय, एक रूप होजाय इन पाँचों मुक्तियों को मैं देता हूँ,
परन्तु मेरे भक्त मेरी सेवा के अतिरिक्त और कुछ नहीं ग्रहण करते ॥१३॥
स एव भक्तियोगाख्य आत्यंतिक उदाहृतः ।
येनातिव्रज्य त्रिगुणं मद्भावायोपपद्यते ॥ १४ ॥
यह अत्यन्त निर्गुणभक्ति योगभक्ति है, जिससे तीनों गुणों का उल्लंघन करके मेरे भाव को प्राप्त होता है, इससे अधिक और दूसरी भक्ति नहीं ॥१४॥
निषेवितेनानिमित्तेन स्वधर्मेण महीयसा ।
क्रियायोगेन शस्तेन नातिहिंस्रेण नित्यशः ॥१५॥
सुंदर नित्य नैमित्तिक महास्वधर्म के अनुष्ठान करके निष्काम नारदपंचरात्र तंत्रोक्त पूजा करने से और हिंसा रहित पूजा करके से अंतःकरण
शुद्ध हो जाता है ॥१५॥
मद्धिष्ण्यदर्शनस्पर्शपूजास्तुत्यभिवन्दनैः ।
भूतेषु मद्भावनया सत्त्वेनासँगमेन च ॥१६॥
मेरी प्रतिमा के दर्शन स्पर्शन पूजा स्तुति प्रणामादि से सब जीवमात्र में मेरी भावना से, धैर्य से, वैराग्य से हृदय पवित्र होता है ॥१६॥
महता बहुमानेन दीनानामनुकंपया ।
मैत्र्या चैवात्मतुल्येषु यमेन नियमेन च ॥१७॥
महात्मा लोगों का आदर सम्मान करने से, दीनों पर दया करने से, अपने समान कक्षा में मित्रता करने से, यम नियम करने से शरीर
शुद्ध होजाता है ॥१७॥
आध्यात्मिकानुश्रवणान्नामसंकीर्तनाच्च मे ।
आर्जवेनाssर्यसंगेन निरहंक्रियया तथा ॥१८॥
ब्रह्मविद्या के सुनने से, मेरे नाम का उच्चारण और संकीर्तन से, साधुत्तन्तों की संगति करने से, अहंकार त्यागने से चित्र शुद्ध होता है ॥१८॥
मद्धर्मणो गुणैरेतैः परिसंशुद्धआशयः ।
पुरुषस्यांजसाऽभ्येति श्रुतमात्रगुणं हि माम् ॥१९॥
जो पुरुष मेरे धर्म के गुण का साधन करता है, उसका हृदय शुद्ध हो जाता है, केवल मेरे गुणों के सुनने से ही पुरुष को मेरा स्वरूप विना
ही श्रम प्राप्त होता है ॥१९॥
यथा वातरथो घ्राणमावृक्ते गंध आशयात् ।
एवं योगरतं चेत आत्मानमविकारि यत् ॥२०॥
जैसे सब स्थानों में पवन द्वारा गंध आता है उसी प्रकार भक्ति- योग में लगा हुआ अविकार मन आत्मा में आप आ मिलता है ॥२०॥
अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्माऽवस्थितः सदा ।
तमवज्ञाय मां मर्त्यः कुरुतेऽर्चाविडंबनम् ॥२१॥
सब जीवमात्र में भूतात्मा मैं सदा स्थिर रहता हूँ मेरी अवज्ञा करके जो पुरुष केवल मूर्ति का पूजन करते हैं, वह विडम्बना मात्र है ॥२१॥
यो मां सर्वेषु भूतेषु संतमात्मानमीश्वरम् ।
हित्वार्चां भजते मौढयाद्भस्मन्येव जुहोति सः ॥२२॥
मैं सबके शरीर में रहने वाला हूँ, मुझे छोड़कर जो मनुष्य मूर्ति की अर्चा करते हैं, वे अपनी मूर्खता से राख में हवन करते हैं ॥२२॥
द्विषतः परकाये मां मानिनो भिन्नदर्शिनः ।
भूतेषु बद्धवैरस्य न मनः शांतिमृच्छति ॥२३॥
सब प्राणियों की देह में जो मैं विराजमान हूँ, जो मुझ से द्वेष रखता है, अभिमान रखता है, भेदभाव रखता है ऐसे उन प्राणियों का मन कभी
शान्त नहीं होता ॥२३॥
अहमुच्चावचैर्द्रव्यैः क्रिययोत्पन्नयाऽनघे ॥
नैव तुष्येऽर्चितोऽर्चायां भूतग्रामावमानिनः ॥२४॥
हे माता ! ऊँचे नीचे द्रव्यों से, क्रिया से, अर्चा से, मैं सन्तुष्ट नहीं होता हूँ, और जो जीवों का अनादर करता है उसपर मैं प्रसन्न नहीं हो सकता ॥२४॥
अर्चादावर्चयेत्तावदीश्वरं मां स्वकर्मकृत् ।
यावन्न वेद स्वहृदि सर्वभूतेष्ववस्थितम् ॥२५॥
सब जीवमात्र में परमात्मा मैं हूँ, जबतक मेरा अनुभव हृदय में प्रकाश न होय, तब तक मनुष्यों को मूर्ति आदि का पूजन करना चाहिये ॥२५॥
आत्मनश्च परस्यापि यः करोत्यंतरोदरम् ।
तस्य भिन्नदृशो मृत्युर्विदधे भयमुल्बणम्॥२६॥
आप में और मुझ में जो प्राणी अंतर समझते हैं, उन भिन्न दृष्टि वालों को मैं सदा कष्ट देता रहता हूँ ॥२६॥
अथ मां सर्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम् ।
अर्हयेद्दानमानाभ्यां मैत्र्याऽभिन्नेन चक्षुषा ॥२७॥
इसलिये मुझ को सब जीवों में और भूतों में विराजमान जानकर सब प्राणियों का अन्तर्यामी मैं हूँ मुझ से दान मान मित्रता रख कर
भेद दृष्टि से न देखना चाहिये ॥२७॥
जीवाः श्रेष्ठा ह्यजीवानां ततः प्राणभृतः शुभे ।
ततः सचित्ताः प्रवरास्ततश्चैद्रियवृत्तयः ॥२८॥
हे शुभे ! अचेतन जीवों में सचेतन अर्थात् प्राणधारी जीव श्रेष्ठ हैं, उनसे प्राणवृत्ति वाले श्रेष्ठ हैं, उनसे चित्तवृति वाले श्रेष्ठ हैं,
उनसे इन्द्रियवृत्ति वाले श्रेष्ठ हैं ॥२८॥
तत्रापि स्पर्शवेदिभ्यः प्रवरा रसवेदिनः ।
तेभ्यो गंधविदः श्रेष्ठास्ततः शब्दविदो वराः ॥२९॥
उनमें स्पर्शज्ञानी श्रेष्ठ हैं, उनमें रसज्ञानी मत्स्यादि श्रेष्ठ हैं,उनमें गंधज्ञानी भ्रमरादिक श्रेष्ठ हैं, उनमें शब्दज्ञानी सर्पादिक श्रेष्ठ हैं॥२९॥
रूपभेदविदस्तत्र ततश्वोभयतोदतः ।
तेषां बहुपदाः श्रेष्ठाश्चतुष्पादस्ततो द्विपात् ॥३०॥
उनमें रूपवेत्ता काकआदि श्रेष्ठ हैं, उनमें दोनों ओर दन्तवाले श्रेष्ठ हैं, उनमें बहुत पांववाले श्रेष्ठ हैं, उनसे चौपाये श्रेष्ठ हैं, उनसे दोपद वाले श्रेष्ठ हैं ॥३०॥
ततो वर्णाश्च चत्वारस्तेषां ब्राह्मण उत्तमः ।
ब्राह्मणेष्वपि वेदज्ञो ह्यर्थज्ञोऽभ्यधिकस्ततः ॥३१॥
द्विपदों में चारों वर्ण श्रेष्ठ हैं, उनमें ब्राह्मणवर्ण श्रेष्ठ है, ब्राह्मणोंमें वेदपाठी श्रेष्ठ हैं, वेदपाठियों में अर्थ जाननेवाले श्रेष्ठ हैं ॥३१॥
अर्थज्ञात्संशयच्छेत्ता ततः श्रेयान्स्वकर्मकृत् ।
मुक्तसंगस्ततो भूयानदोग्धा धर्ममात्मनः ॥३२॥
अर्थ जानने वालों में संशयच्छेदी मीमांसा करने वाले श्रेष्ठ हैं, उनसे स्वकर्म कर्ता श्रेष्ठ हैं, उनसे मुक्तसंगी श्रेष्ठ हैं, उनसे ईश्वर के धर्मकर्ता श्रेष्ठ हैं ॥३२॥
तस्मान्मय्यर्पिताशेषक्रियार्ऽर्थात्मा निरंतरः ।
मय्यर्पितात्मनः पुंसो मयि संन्यस्तकर्मणः ।
न पश्यामि परं भूतमकर्तुः समदर्शनात् ॥३३॥
जिस पुरुष ने अपने धर्म कर्म का फल और अपना शरीर मेरे अर्पण कर दिया है उनमें वह श्रेष्ठ है, मुझमें जिसने अपनी आत्मा समर्पित
की मुझमें ही सब कर्मों का संन्यास करता है उस समदृष्टि महात्मा से कोई अधिक श्रेष्ठ नहीं ॥३३॥
मनसैतानि भूतानि प्रणमेद्बहु मानयन् ।
ईश्वरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति ॥३४॥
ऐसे समदर्शी के समान कोई दूसरा नहीं है समदर्शी मनुष्य वैकुण्ठ को जाता है वह आदिपुरुष अविनाशी सब के घट में विराजमान है,
इसलिये सब जीवमात्र को अत्यन्त आदर सम्मान से मन ही मन में दंडवत् प्रमाण करें ॥३४॥
भक्तियोगश्च योगश्च मया मानव्युदीरितः ।
ययोरेकतरेणैव पुरुषः पुरुषं व्रजेत् ॥३५॥
हे मनुसुते ! भक्तियोग और अष्टांगयोग दोनों मैंने तुमसे कहे इन दोनों में से एक का भी साधन करै तो वह पुरुष परमेश्वर के निकट
पहुँच सकता है ॥३५॥
एतद्भगवतो रूपं ब्रह्मणः परमात्मनः ।
परं प्रधानं पुरुषं दैवं कर्मविचेष्टितम् ॥३६॥
सबका स्वामी प्रकृति पुरुषरूप और उनसे पृथक् जो परमात्मा स्वरूप है,परम प्रधान पुरुष उसी को देव कहते हैं, जिसमें यह जीव अनेक
अनेक प्रकार की योनियों की भोगता है ॥३६॥
रूपभेदास्पदं दिव्यं काल इत्यभिधीयते l
भूतानां महदादीनां यतो भिन्नदृशां भयम्॥३७॥
रूप भेद के आश्रय होने से दिव्यकाल कहलाता है, जिससे भिन्नदृष्टि वाले को महत्तत्वादि भूतों का भय होता है ॥३७॥
योऽन्तः प्रविश्य भूतानि भूतैरत्त्यखिलाश्रयः ।
स विष्ण्वाख्योऽधियज्ञोऽसौ कालः कलयतां प्रभुः ॥३८॥
सर्वाधार और यज्ञों के फलदायक जो ईश्वर जीवों के भीतर प्रविष्ट होकर सब जीवों को भक्षण करते हैं, वही विष्णु है वही अधियज्ञ है,
वही काल है, वही जगत का शासन करने वाले ब्रह्मादि का प्रभु है ॥३८॥
न चाऽस्य कश्विद्दयितो न द्वेष्यो न च वांधवः ।
आविशत्यप्रमत्तोऽसौ प्रमत्तं जनमन्तकृत् ॥३९॥
इस काल का न तो कोई प्यारा है, न कोई शत्रु है, न कोई बांधव है, अप्रमत्त होकर प्रमत्तपुरुषों का अन्त करता है ॥३९॥
यद्भयाद्वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति यद्भयात् ।
यद्भयाद्वर्षते देवो भगणो भाति यद्भयात् ॥४०॥
जिस काल के भय से पवन चलता रहता है, मार्तण्ड तपा करता है, इन्द्र वर्षा करता है, तारागण प्रकाश करते हैं ॥४०॥
यद्वनस्पतयो भीता लताश्चौषधिभिः सह ।
स्वे स्वे कालेऽभिगृह्णन्ति पुष्पाणि च फलानि च ॥४१॥
जिस के भय से वनस्पति, वृक्ष, लता, औषधी सहित अपने समप पर पुष्प और फल उत्पन्न करती हैं ॥४१॥
स्रवन्ति सरितो भीता नोत्सर्पत्युदधिर्यतः ।
अग्निरिंधे सगिरिभिर्भूर्न मज्जति यद्भयात् ॥४२॥
जिस के भय से नदियें दिनरात बहती रहती हैं, समुद्र अपनी मर्यादा नहीं छोड सकते, अग्नि प्रज्वलित होता रहता है, पर्वत सहित
भूमि डूबती नहीं ॥४२॥
नभो ददाति श्वसतां पदं यन्नियमाददः ।
लोकं स्वदेहं तनुते महान् सप्तभिरावृतम् ॥४३॥
जिस की आज्ञा से यह आकाश सब श्वास लेने वालों को सावकाश देता है, महतत्त्व सात आवरण युक्त इस लोक में इस देह का विस्तार करता है ॥४३॥
गुणाभिमानिनो देवाः सर्गादिष्वस्य यद्भयात् ।
वर्ततेऽनुयुगं येषां वश एतच्चराचरम् ॥४४॥
जिस के भय से गुणाभिमानी देवता, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, स्वर्गादिक युग युग वर्तमान रहते हैं; और बारंबार संसार की
उत्पत्ति, पालन, संहार करते रहते हैं ॥४४॥
सोऽनन्तोऽन्तकरः कालोऽनादिरादिकृदव्ययः ।
जनं जनेन जनयन्मारयन्मृत्युनांतकम् ॥४५॥
वह अनंत अंत करनेवाला काल अनादि, आदि करने वाला है, अव्यय है, जनों से जनों को जन्माता है, परन्तु काल को भी मृत्यु से
संहार करता है, वह परमात्मा कालरूप अपनी इच्छानुसार काम करता है ॥४५॥
इति श्री कपिलगीताभाषाटीकायां बहुविधभक्तियोगवर्णनं नाम पंचमोऽध्यायः ॥५॥