षष्ठोऽध्यायः ६
कपिल उवाच
तस्यैतस्य जनो नूनं नायं वेदोरुविक्रमम् ।
काल्यमानोऽपि बलिनो वायोरिव घनावलिः ॥१॥
कपिलदेव जी बोले कि, इस कालकरालके पराक्रम को यह जीव नहीं जान सकता, जैसे पवन से चलायमान मेघमाला वायु के
विक्रम को नहीं जान सकती ॥१॥
यं यमर्थमुपादत्ते दुःखेन सुखहेतवे ।
तं तं धुनोति भगवान्पुमान् शोचति यत्कृते॥२॥
अपने शरीर के सुख के लिये वह जीव अनेक दुःख कर के जिस वस्तु का संग्रह करता है; उस वस्तु को काल भगवान् नाश कर देते हैं, जिस के
लिये रात दिन प्राणी शोच में पडा रहता है ॥२॥
यदध्रुवस्य देहस्य सानुबंधस्य दुर्मतिः ।
ध्रुवाणि मन्यते मोहाद् गृहक्षेत्रवसूनि च ॥३॥
शोच में क्यों पड़ा रहता है ? कि, जो वस्तु नाशवान् है,यह मूर्ख परिवार सहित देह को धन को खेत को मोह से इन नाशवान वस्तुओं को यह
अज्ञानी ध्रुव समान स्थिर मानता है ॥३॥
जंतुर्वै भव एतस्मिन् यां यां योनिमनुव्रजेत् ।
तस्यां तस्यां स लभते निर्वृतिं न विरज्यते ॥४॥
निश्चयकर के यह जो जीव संसार में जिस जिस योनि में जाता है; उसी उसी योनि में आनंद से रहता है; परन्तु कभी वैराग्य धारण नहीं करता ॥४॥
नरकस्थोऽपि देहं वै न पुमांस्त्यक्तुमिच्छति ।
नारक्यां निर्वृतौ सत्यां देवमायाविमोहितः॥५॥
नरकवासी जीव भी अपने शरीर के त्यागने की इच्छा नहीं करते, नरक को ही आनंद भवन मानते हैं; देव की माया
से जीव ऐसे विमोहित हो रहे हैं ॥५॥
आत्मजायासुतागार पशुद्रविणबंधुषु ।
निगूढमूलहृदय आत्मानं बहु मन्यते ॥६॥
और शरीर, स्त्री, पुत्र, घर, पशु, गज, बाजी, बंधु जनों में अपना हृदय अत्यन्त फँसा है, सो अपने आप को बहुत बुद्धिमान और
सुख निधान मानता है ॥६॥
संदह्यमान सर्वांग एषामुद्वहनाधिना ।
करोत्यविरतं मूढो दुरितानि दुराशयः ॥७॥
और अपने कुटुंबियों के पालन पोषण के संदेह में सब शरीर, उसका सरदी गरमी से जलता गलता रहता है, तो भी वह मूढ बुरे हृदय से
सदा बुरे बुरे कर्म करता ही रहता है ॥७॥
आक्षिप्तात्मेंद्रियः स्त्रीणामसतीनां च मायया ।
रहो रचितयाssलापैः शिशूनां कलभाषिणाम् ll८॥
खोटी वेश्यादिक स्त्रियों की एकान्त में मैथुनादि माया से शरीर इन्द्रिय सब विक्षिप्त रहती हैं और तोतली रसभरी बालकों की मधुरवाणी के
साथ झूठी बातें कर उन्मत्त सा बना रहता है ॥८॥
गृहेषु कूटधर्मेषु दुःखतंत्रेष्वतंद्रितः ।
कुर्वन्दुःखप्रतीकारं सुखवन्मन्यते गृही ॥९॥
धन के लोभ से धर्म करे उस में भी अधर्म सदा दुःख, ऐसे घर में आलस्य तज दुःख दूर करने के लिये उपाय करते हैं और गृहस्थी को
सुख के समान मानते हैं ॥९॥
अर्थैरापादितैर्गुर्व्या हिंसयेतस्ततश्च तान् ।
पुष्णाति येषां पोषेण शेषभुग्यात्यधः स्वयम् ॥१०॥
और महाहिंसा कर के इधर उधर से धन इकठ्ठा कर, परिवार का पालन पोषण करते हैं, और आप उनकी जूँठन खा खाकर अपनी
अवस्था पूरी करते हैं, और अंत समय नरक में जाते हैं ॥१०॥
वार्तायां लुप्यमानायामारब्धायां पुनःपुनः ।
लोभाभिभूतो निःसत्त्वः परार्थे कुरुते स्पृहाम् ॥११॥
जब उनकी जीविका बंद हो जाती है, तब उसके उपार्जन के लिये सहस्रों उपाय करते हैं, इसीप्रकार वारंवार वह महालोभी, वह निर्धन
यत्न करता जब मन में हार मानता हैं तब पराये धन के लेने की इच्छा करता है ll११॥
कुटुंबभरणाकल्पो मंदभाग्यो वृथोद्यमः ।
श्रिया विहीनः कृपणो ध्यायञ्छ्वसिति मूढधीः ॥१२॥
जब कुटुम्ब के पालन पोषण की सामर्थ्य न रही और उद्यम निष्फल होने लगा, तब वह मंदभागी मंदबुद्धि रुपेण अत्यन्त शोचवश हो कर
लम्बे श्वास लेने लगता है ॥१२॥
एवं स्वभरणाकल्पं तत्कलत्रादयस्तदा ।
नाद्रियते यथापूर्वं कीनाशा इव गोजरम् ॥१३॥
इस प्रकार का जब वह प्राणी कुटुम्ब के पालन पोषण में सामर्थ्य नहीं करता, तब उस के कुटुम्बी लोग पहले जैसा उसका आदर सत्कार
नहीं करते, जिस प्रकार किसान बूढे बैल का आदर नहीं करते ॥१३॥
तत्राप्यजातनिर्वेदो भ्रियमाणः स्वयंभृतैः ।
जरयोपात्तवैरूप्यो मरणाभिमुखो गृहे ॥१४॥
इतने पर भी ज्ञान और वैराग्य उन मूर्खो को नहीं होता अब वह वृद्ध मन ही मन कहता है कि, हाय ! जिनका लालन पोषण मैं करता था,
आज वह मेरा पालन करते हुए कडुए वचन कहते हैं; हा ! जरा के आने से मेरा रूप कुरूप हो गया,मरने के सम्मुख घर में घुटना पडा ॥१४॥
आस्तेऽवमत्योपन्यस्तं गृहपाल इवाहरन् ।
आमयाव्यप्रदीप्ताग्निरल्पाहारोऽल्पचेष्टितः ॥१५॥
घर के लोग जब भोजन कर चुके हैं तब अनादर से कुछ खानेपीने को श्वान के समान दूर से टुकडा डालते हैं, रोग सब शरीर में प्रगट हो गए,
मंदाग्नि से भोजन भी थोडा खाया जाता है, उठने बैठने की सामर्थ्य नहीं रही, नेत्रों से दीखना बंद हो गया ॥१५॥
वायुनोत्क्रमतोत्तारः कफसंरुद्धनाडिकः ।
कासश्वासकृतायासः कंठे घुरघुरायते ॥१६॥
जब मृत्यु का समय आया तब वायु से नेत्र फटने लगे,पुतलियां ऊपर को चढ गई; आंसू निकलने लगे, नाडियें रुक गई, कास श्वास के
किये हुए क्लेशों से कंठ में कफ घिरने लगा ॥१६॥
शयानः परिशोचद्भिः परिवीतः स्वबंधुभिः ।
वाच्यमानोऽपि न ब्रूते कालपाशवशं गतः ॥१७॥
उस समय शोचवश हो भाईबन्धु चारों ओर से घेरकर बैठ जाते हैं और बहुत ही पुकार पुकार कर बूझते हैं कि, हे पिता ! हे दादा !
कुछ धन धरा धराया हो तो बतादो, अब तुम्हारा चित्त कैसे है ? वह तो काल की फाँसी में फँसा हुआ है, कंठ रुका हुआ है, अपना सुख,
दुःख मुख से कुछ नहीं कह सकता, तब लोग फिर उसको समझाते हैं, कि आप कुछ द्रव्य बतावैं तो हम गाय मँगा के आप से पुण्य करावैं ॥१७॥
एवं कटुम्बभरणे व्यापृतात्माऽजितेंद्रियः ।
म्रियते रुदतां स्वानामुरुवेदनयाऽस्तधीः॥१८॥
जिसने कुटुम्ब के भरने में और चारों ओर से उनके पालन करने में कसर न की, अपनी इन्द्रियों को न जीता, वह नष्ट बुद्धि, वह
अज्ञानी रोते हुए अपने बन्धुबान्धवों में मर गया ॥१८॥
यमदूतौ तदा प्राप्तौ भीमौ सरभसेक्षणौ ।
स दृष्ट्वा त्रस्तहृदयः शकृन्मूत्रं विमुंचति ॥१९॥
उस समय उसके लेने के लिये, क्रोध से लाल लाल नेत्र किये, महाभयानक यमराज के दो दूत आये, दंडपाश उनके हाथों में देख त्रास के
मारे वह पापी जीव विष्ठा मूत्र कर देता है ॥१९॥
यातनादेह आवृत्य पाशैर्बद्ध्वा गले बलात् ।
नयतो दीर्घमध्वानं दंडयं राजभटा यथा ॥२०॥
वह दूत उसे उसी समय बरबस पकड गले में फाँसी डाल उस नर देह में से उस जीव को निकाल, यातनादेह (जो यमलोक में कष्ट भोगने
को नियत है ) रख, हाथ बांध कर, राजा के दूत जैसे अपराधी को बरबश पकड़ व घसीटकर ले जाते हैं, उसीभाँति उस जीव
को बढी दूर के मार्ग को ले जाते हैं ॥२०॥
तयोर्निर्भिन्नहृदयस्तर्जनैर्जातवेपथुः ।
पथि श्वभिर्भक्ष्यमाण आर्तोऽघं स्वमनुस्मरन् ॥२१॥
उन दूतों के मारने पीटने से उसका हृदय फट जाता है, देह कांपने लगती है, गिरते पडते, मार्ग में कुत्ते फाडने को दौडते हैं,
उस समय वह प्राणी आर्त होकर अपने किये पाप को याद करता है ॥२१॥
क्षुत्तृट्परीतोऽर्कदवानलानिलैः संतप्यमानः पथि तप्तवालुके ।
कृच्छ्रेण पृष्ठे कशया च ताडित- श्चलत्यशक्तोऽपि निराश्रमोदके ॥२२॥
मार्गमें क्षुधा-तृषा सताती है, भोजन देखने को भी नहीं मिलता, ऊपर से सूर्य की गर्मी पड़ती है, नीचे धरती जलती है फिर तपती हुई बालू
पर तपना पड़ता है; जब कहीं थक कर बैठ जाता है, और नहीं चलता तब यमदूत बड़े निर्दयीपन से कोडे मारते हैं, मार्ग में न कहीं
ठहरने का ठिकाना है, न कहीं पानी पीने को मिलता है, उस समय मुख से हाय हाय निकलती है ॥२२॥
तत्र तत्र पतञ्छ्रांतो मूर्च्छितः पुनरुत्थितः ।
यथा पापीयसा नीतस्तमसा यमसादनम् ॥२३॥
और जहां तहां थकित होकर गिरपड़ता व मूर्छित हो जाता है, फिर उठकर चलने लगता है, इसीप्रकार उस पापी जीव को महा
अन्धकार व्याप्त मार्ग में हो कर यमदूत यमपुरी को ले जाते हैं ॥२३॥
योजनानां सहस्राणि नवतिं नव चाध्वनः ।
त्रिभिर्मुहूर्तैर्द्वाभ्यां वा नीतः प्राप्नोति यातनाः ll२४॥
निन्यानवे हजार ( ९९०००) योजन मार्ग चार घडी में उस महापापी को ले जाते हैं और पापी को छः घडी में यमपुर ले जाते हैं,
वहां अनेक अनेक प्रकार की यातना भोगनी पडती है ॥२४॥
आदीपनं स्वगात्राणां वेष्टयित्वोल्मुकादिभिः ।
आत्ममांसादनं क्वापि स्वकृत्तं परतोऽपि वा ll२५॥
कहीं तो उस जीव की देह लकडियों से जलाते हैं, कहीं का मांस इस को भक्षण कराते हैं; कहीं वह आपही अपने मांस से अपना पेट भरता है ॥२५॥
जीवतश्चांत्राभ्युद्धारः श्वगृध्रैर्यमसादने ।
सर्पवृश्चिकदंशाद्यैर्दशद्भिश्चात्मवैशसम् ॥२६ ॥
कहीं यमलोक में श्वान गीध जीतेजी आंतें निकाल ले जाते हैं, कहीं साँप बिच्छू डाँसादिक की पीडा से दुःख पाकर अपने कर्मों का
किया फल भोगता है ॥२६॥
कृन्तनं चावयवशो गजादिभ्योऽभिदापनम् ।
पातनं गिरिशृंगेभ्यो रोधनं चांबुगर्तयोः ॥२७॥
कहीं उसका शरीर काट काट कर खण्ड खण्ड करते हैं, कहीं हाथी दांतों पर धर कर घुमा कर पटक पाँव से दबाय शुण्ड से उठाय
कर चीर देते हैं, कहीं ढकेल देते हैं,शृङ्गों से पटक कहीं पाँवों से पीस कर मारते हैं, कहीं पर्वतों के गिरा देते हैं, कहीं पानी में डुबो देते हैं,
कहीं गढ्ढे में बन्द कर देते हैं ॥२७॥
यास्तामिस्त्रान्धतामिस्रा रौरवाद्याश्च यांतनाः ।
भुंक्ते नरो वा नारी वा मिथः संगेन निर्मिताः ll२८॥
जो तामिस्र, अन्धतामिस्र और रौरवादिक नरकों की पीड़ा है, सो नर नारी भोगते हैं, जो पूर्व कुकर्म किये हैं उनका फल उनको भोगना पड़ता है ॥२८॥
अत्रैव नरकः स्वर्ग इति मातः प्रचक्षते ।
या यातना वै नारक्यस्ता इहाप्युपलक्षिताः ॥२९॥
हे माता ! यह बात कुछ आश्चर्य की नहीं है. क्योंकि नरक और स्वर्ग दोनों यहीं दिखाई देते हैं जो जो कष्ट नरक में सहने पड़ते हैं वे संसार
के मध्य भी देखने में आते हैं ॥२९॥
एवं कुटुंबं बिभ्राण उदरंभर एव वा ।
विसृज्येहोभयं प्रेत्य भुंक्ते तत्फलमीदृशम् ॥३०॥
जो प्राणी केवल इसप्रकार अपने परिवार का पालन पोषण करता है, वा अपना उदर भरता है उस के वह कर्म उस के साथ जाते हैं
और जब मर कर यमपुरी में जाता है, तब उस को अपने पाप का फल अकेले ही भोगना पडता है ॥३०॥
एकः प्रपद्यते ध्वांतं हित्वेदं स्वकलेवरम् ।
कुशलेतरपाथेयो भूतद्रोहेण यद् भृतम् ॥३१॥
इस अपने शरीर को छोड कर एक ही जीव नरक को जाता है, भृत्यद्रोह के लिये जो पाप किये हैं, वे सब वहीं भोगने पडते हैं ॥३१॥
दैवेनासादितं तस्य शमलं निरये पुमान् ।
भुंक्ते कुटुंबपोषस्य हृतवित्त इवातुरः ॥३२॥
दैव के प्राप्त किये हुए, उसको अकेले में पुरुष सब कष्ट भोगता है, कुटुम्ब पालने का फल यहां भोगता है, और जिस का धन लुट
जाता है ऐसे पुरुष की नाईं वह आतुर हो जाता है ॥३२॥
केवलेन ह्यधर्मेण कुटुंबभरणोत्सुकः ।
याति जीवोऽन्धतामिस्त्रं चरमं तमसः पदम् ॥३३॥
केवल अधर्म से जो परिवार पालने में तत्पर है वह प्राणी अन्धतामिस्रतम का जो स्थान है उसमें जाता है ॥३३॥
अधस्तन्नरलोकस्य यावतीर्यातनादयः ।
क्रमशः समनुक्रम्य पुनरत्राव्रजेच्छुचिः ॥३४॥
नरलोक से जो नीचे यातनादिक नरक हैं, उन सबको क्रम सै भोगकर जब पाप क्षीण होता है, तब फिर शुद्ध हो कर मनुष्यदेह पाता है ॥३४॥
इति कपिलगीताभाषाटीकायां कामिनां नरकादिक वर्णनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥६॥