कपिल गीत - अष्टमोऽध्यायः ८


अष्टमोऽध्यायः ८



कपिल उवाच



अथ यो गृहमेधीयान् धर्मानेवावसन् गृहे ।



काममर्थं च धर्मांश्च दोग्धि भूयः पिपर्ति तान् ॥१॥



कपिलदेवजी बोले कि, जो कोई गृहस्थी गृहस्थ के धर्मों का आचरण घर में बैठ कर करते हैं और अर्थकामरूप की कामना के लिये उन



सब काम का अनुष्ठान कर फिर उन सब कामों को पूर्ण करते हैं ॥१॥



स वापि भगवद्धर्मात् काममूढः पराङ्मुखः ।



यजते क्रतुभिर्देवान् पितृंश्च श्रद्धयाऽन्वितःll२॥



वे मनुष्य कामनाओं में विमूढ हो भगवद्धर्म से पराङ्मुख हो श्रद्धालु बनकर यज्ञों से देवता पितरों का यजन करते हैं ॥२॥



तच्छ्रद्धयाssकांतमतिः पितृदेवव्रतः पुमान् ।



गत्वा चांद्रमसं लोकं सोमपाः पुनरेष्यति ॥३॥



और जिन की बुद्धि और श्रद्धा पितृ और देवताओं में लग रही है वे मनुष्य पितृदेवताओं का व्रत कर चन्द्रलोक में जाते है।



और वहां अमृतपान कर फिर जन्म लेते हैं ॥३॥



यदा चाहीन्द्रशय्यायां शेतेऽनन्तासनो हरिः ।



तदा लोका लयं यान्ति त एते गृहमेधिनाम्॥४॥



जब शेष शय्या पर अनंतासन नारायण शयन करते हैं तब गृहस्थियों के सब लोक लय को प्राप्त हो जाते हैं, इससे ज्ञात होता है कि,



सकाम कर्म करने वालों को जो लोक प्राप्त होते हैं वे स्थिर नहीं रहते ॥४॥



ये स्वधर्मान्न द्रुह्यन्ति धीराः कामार्थहेतवे ।



निःसड्गा न्यस्तकर्माणः प्रशांताः शुद्धचेतसः ॥५॥



जो धीरपुरुष काम अर्थ के लिये स्वधर्म का आचरण करते हैं वह सब संगत्याग सब कर्मत्याग, अत्यन्त शान्त शुद्ध चित्त से



श्रीभगवान् के निवासस्थान को जाते हैं ॥५॥



निवृत्तिधर्मनिरता निर्ममा निरहंकृताः ।



स्वधर्माख्येन सत्त्वेन परिशुद्धेन चेतसा ॥६॥



जो पुरुष निवृत्तिकर्म में प्रीति करते हैं, और ममता व अहंकार को त्याग कर अत्यन्त शुद्ध चित्त से अपने स्वधर्म का सात्त्विक



भाव से आचरण करते हैं वे भगवत् के लोक को जाते हैं ॥६॥



सूर्यद्वारेण ते यांति पुरुषं विश्वतोमुखम् ।



परावरेशं प्रकृतिमस्योत्पत्त्यंत भावनाम् ॥७॥



और ऐसे विश्वमुख पुरुष को पर अपवर्ग के स्वामी प्रकृति के पति इस विश्व की उत्पत्ति पालन संहार करने वाले सूर्य मार्ग के द्वारा प्राप्त होते हैं ॥७॥



द्विपरार्धावसाने यः प्रलयो ब्रह्मणस्तु ते ।



तावदध्यासते लोकं परस्य परचिंतकाः ॥८॥



जो पुरुष परमेश्वर दृष्टि से ब्रह्मा का पूजन करते हैं सो ब्रह्मा के सौ वर्ष के अन्त में जो प्रलय होता है तब तक तो ब्रह्मा के लोक में वास करते हैं ॥८॥



क्ष्माम्भोऽनलाऽनिलवियन्मनइंद्रियार्थ- भूतादिभिःपरिवृतं प्रतिसंजिहीर्षुः ।



अव्याकृतं विशति यर्हि गुणत्रयात्मा कालं पराख्यमनुभूय परः स्वयंभूः ॥९॥



फिर द्विपरार्ध लक्षण काल का अनुभव कर पृथ्वी जलअगनि, पवन, आकाश, मन, इन्द्रिय उनके अर्थ पंच अहंकार इनसे युक्त संसार की संहार की



इच्छा करने वाला गुणत्रयमय शरीरवाला ब्रह्मा अपने सौ वर्ष को भोगकर परमेशवर में लीन हो जाता है ॥९॥



एवं परेत्य भगवन्तमनुप्रविष्टा ये योगिनो जितमरुन्मनसो विरागाः ।



तेनैव साकममृतं पुरुषं पुराणं ब्रह्म प्रधानमुपयान्त्यगताभिमानाः॥१०॥



तब यहां से दूर जा कर भगवत् के हिरण्यगर्भ के सेवक योगीजन जिन्होंने पवन मन को जीत कर वैराग्य लिये हैं, वे अभिमान त्यागने वाले



ब्रह्मा ही के साथ अमृतस्वरूप पुरुष पुराण प्रधान ब्रह्म को प्राप्त होते हैं परन्तु ब्रह्मा से पहिले उस पदवी को नहीं पा सकते क्योंकि ब्रह्मा के



समय तक उन देहाभिमानियों का अभिमान निवृत्त नहीं हो सकता ॥१०॥



अथ तं सर्वभूतानां हृत्पद्मेषु कृतालयम् ।



श्रुतानुभावं शरणं व्रज भावेन भामिनि ॥११॥



हे प्रकाशरूपिणि ! अब सब जीवों के हृदयकमल में जिनका स्थान है उनका अनुभव सुन भाव से शरण जावे ॥११॥



आद्यः स्थिरचराणां यो वेदगर्भः सहर्षिभिः ।



योगेश्वरैः कुमाराद्यैः सिद्धैर्योगप्रवर्तकैः ॥१२॥



स्थावर जंगम के आद्य ऋषि सहित ब्रह्माजी योगीश्वर सनकादिक सिद्धयोग प्रवर्तक भी ॥१२॥



भेददृष्टयाभिमानेन निःसंगेनापि कर्मणा ।



कर्तृत्वात्सगुणं ब्रह्म पुरुषं पुरुषर्षभम् ॥१३॥



भेददृष्टि करके अभिमान से निष्काम कर्म कर के कर्ताभाव होने से पुरुषों में श्रेष्ठ अपने पद सगुणब्रह्म को ॥१३॥



स संसृत्य पुनः काले कालेश्वरमूर्तिना ।



जाते गुणव्यतिकरे यथापूर्वं प्रजायते ॥१४॥



सो ब्रह्मा प्राप्त हो ईश्वररूप काल कर के संसार में फिर जन्म लेकर जैसे पहिले ब्रह्मा की उसी पदवी को फिर प्राप्त हुए ॥१४॥



ऐश्वर्यं पारमेष्ठ्यं च तेऽपि धर्मविनिर्मितम् ।



निषेव्य पुनरायांति गुणव्यतिकरे सति ॥१५॥



हे सति! धर्मविनिर्मित वे पुरुष भी पारमेष्ठ्य के ऐश्वर्य को सेवन कर फिर संसार में जन्म लेते हैं ॥१५॥



ये त्विहासक्तमनसः कर्मसु श्रद्धयान्विताः ।



कुर्वत्यप्रतिषिद्धानि नित्यान्यपि च कृत्स्नशः ॥१६॥



और जो लोग इस संसार में आसक्त मन से श्रद्धा कर कर्मों में लग रहे हैं, सब ओर से जिन का कोई निषेध न करे ऐसे कर्म करते हैं ॥१६॥



रजसा कुंठमनसः कामात्मानोऽजितेंद्रियाः ।



पितृन्यजंत्यनुदिनं गृहेष्वभिरताशयाः ॥१७॥



और रजोगुण से उनके मन हरे गए कामों में आत्मा उनकी लगी हुई है, इन्द्रियें वश में नहीं हैं, घर में जिनका मन सदा लगा रहता है



और नित्य पितरों का पूजन करते हैं ॥१७॥



त्रैवर्गिकास्ते पुरुषा विमुखा हरिमेधसः ।



कथायां कथनीयोरुविक्रमस्य मधुद्विषः॥१८॥



अर्थ, धर्म, काम में मन को लगाये रखते हैं, ईश्वर से विमुख कथनीय, भगवद्यश गानेयोग्य जिन के पराक्रम हैं, उन मधुसूदन की



कथा में जो विमुख हैं ॥१८॥



नूनं दैवेन विहता ये चाच्युतकथासुधाम् ।



हित्वा शृण्वंत्यसद्गाथाः पुरीषमिव विड्भुजः ॥१९॥



और जो पुरुष नारायण की सुधारूपी कथा को त्याग कर रसिक ग्रंथो में मन लगाते हैं और उनही चरीत्रों को पढकर प्रसन्न होते हैं,



जैसे सब उत्तमोत्तम पदार्थों को तजकर विष्ठा- भोजी विष्ठा ही से प्रसन्न होता है ऐसे जो नीच लोगों की कथा कहानी सुनते रहते हैं,



वे अभागी निश्चय भाग्य के मारे हुए हैं, दैव ने उनको भाग्य हीन बनाया है ॥१९॥



दक्षिणेन पथाऽर्यम्णः पितृलोकं व्रजंति ते ।



प्रजामनु प्रजायंते श्मशानांतक्रियाकृतः ॥२०॥



जिन्होंने गर्भ से लेकर श्मशान पर्यन्त क्रिया की है, वे पुरुष सूर्य से दक्षिणमार्ग होकर पितृलोक को जाते है, फिर कुछ काल व्यतीत कर



अपने पुत्रादिकों में ही आ कर जन्म लेते है ॥२०॥



ततस्ते क्षीणसुकृताः पुनर्लोकमिमं सति ।



पतंति विवशा देवैः सद्यो विभ्रंशितोदयाः ॥२१॥



हे सति । पितृलोक से जब उसका सुकृत क्षीण होता है,तब देवता लोग उसके सब साधनों को नष्ट कर देते हैं, उससे वह प्राणी विवश होकर



फिर इसी मृत्युलोक में आ कर जन्म लेता है ॥२१॥



तस्मात्त्वं सर्वभावेन भजस्व परमेष्ठिनम् ।



तद्गुणाश्रयया भक्त्या भजनीयपदांबुजम् ॥२२॥



इसलिये सब भाव से परमेश्वर के पदारविन्द का भजन करना मुख्य है, जो चरणकमल गुणाश्रय भक्ति से भजन के योग्य हैं ॥२२॥



वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।



जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं यद्ब्रब्रह्मदर्शनम् ॥२३॥



भगवान् वासुदेव में जो भक्तियोग करै तो शीघ्र ही वैराग्य ज्ञान ब्रह्मदर्शन हो जाता है ॥२३॥



यदाऽस्य चित्तमर्थेषु समेष्विन्द्रियवृत्तिभिः ।



न विगृह्णाति वैषम्यं प्रियमप्रियमित्युत ॥२४॥



जब इस भक्त का मन इन्द्रियों की वृत्ति कर के समान अर्थों में जो प्रिय अप्रिय में विषमभाव को नहीं ग्रहण करता ॥२४॥



स तदैवाऽऽत्मनात्मानं निस्संगं समदर्शनम् ।



हेयोपादेयरहितमारूढं पदमीक्षते ॥२५॥



जब निःसंग समदर्शी त्यागने और ग्रहण करने से रहित है, तब उसको आप ही विदित हो जाता है कि स्वयंप्रकाश आत्मा का परमानंद मैं ही हूं,



ऐसा निश्चय हो जाता है ॥२५॥



ज्ञानमात्रं परं ब्रह्म परमात्मेश्वरः पुमान् ।



दृश्यादिभिः पृथग्भावैर्भगवानेक ईयते ॥२६॥



ज्ञानमात्र परब्रह्म परमात्मा ईश्वर पुरुष भगवान् देखने के योग्य पृथक भावों से एक प्रतीत होते हैं ॥२६॥



एतावानेव योगेन समग्रेणेह योगिनः ।



युज्यतेऽभिमतो ह्यर्थो यदसंगस्तु कृत्स्नशः ll२७॥



इस विश्व में समग्र योग से योगीजन अपना अभिमत अर्थ इतना ही मानते हैं कि, सब प्रकार से सब से संग छूटजाय ॥२७॥



ज्ञानमेकं पराचीनैरिंद्रियैर्ब्रह्म निर्गुणम् ।



अवभात्यर्थरूपेण भ्रान्त्या शब्दादिधर्मिणां ॥२८॥

बहिर्मुख इन्द्रियों से, अर्थरूप से, भ्रांति से, शब्दादिधर्म से,एक ज्ञानरूप निर्गुण बृहत्त्वादि गुण से, विशिष्टचैतन्य ब्रह्म प्रकाशित है ॥२८॥



यथा महानहंरूपस्त्रिवृत् पंचविधः स्वराट् ।



एकादशविधस्तस्य वपुरंडं जगद्यतः ॥२९॥



जैसे प्रथम एकरूप परमात्मा का था वही महत्तत्त्व, त्रिगुण, अहंकार रूप हुआ, पंचभूत रूप करके पांच प्रकार का एकादश इंद्रियरूप करके



एकादश विधि का स्वराट् ( जीवरूप ) हुआ, उस जीव का शरीर खंड हुआ, खंड से शरीर अनंतरूप से प्रगट हुआ, जिन महत्तत्त्वादिकों



 से इस प्राणी का देहरूप जगत् उत्पन्न हुआ ॥२९॥



एतद्वै श्रद्धा भक्त्या योगाभ्यासेन नित्यशः ।



समाहितात्मा निस्संगो विरक्त्यापरिपश्यति ॥३०॥



जिस पुरुष का मन भक्ति से, वैराग्य से, श्रद्धा से, योगाभ्यास से, एकाग्र हो गया है, जिसका आत्मा सब संग त्यागकर विरक्त हो कर देखता है,



वह महात्मा पुरुष इस भेद का निश्चय कर सकता है ॥३०॥



इत्येतत्कथितं गुर्विज्ञानं तद्ब्रह्मदर्शनम् ।



येनानुबुद्ध्यते तत्त्वं प्रकृतेः पुरुषस्य च ॥३१॥



हे माता ! साक्षात् ब्रह्म का स्वरूप हो जाता है और प्रकृति पुरुष का तच दिखने लगता है । वह ज्ञान मैंने तुमको सुनाया ॥३१॥



ज्ञानयोगश्च मन्निष्ठो नैर्गुण्यो भक्तिलक्षणः ।



द्वयोरप्येक एवार्थो भगवच्छब्दलक्षणः ॥३२॥



मुझ में निष्ठा कर ज्ञानयोग करना, और निर्गुणभक्ति इन दोनों का अर्थ एक ही है भगवत्शब्द लक्षण रूप है ॥३२॥



यथेंद्रियैः पृथग्द्वारैरर्थी बहुगुणाश्रयः ।



एको नानेयते तद्वद्भगवाञ्छास्त्रवर्त्मभिः॥३३॥



जिस प्रकार रूप रस आदि अनेक गुणयुक्त सब ही वस्तु पृथक्  मार्गवाली इन्द्रियों से अनेक भाँति की विदित होती है, जैसे कि हरड़ नेत्र से हरित,



जिह्वासे कसैली,त्वचा से अशीत, प्रतीत होती है, इसी प्रकार एक ही भगवान् शास्त्रों के द्वारा नाना प्रकार के ज्ञात होते हैं ॥३३॥



क्रियया क्रतुभिर्दानैस्तपःस्वाध्यायमर्शनैः ।



आत्मेंद्रियजयेनापि सन्यासेन च कर्मणाम् ॥३४॥



अनेक प्रकार की शुभ क्रिया करने से जैसे कुआ, बावडी, वाटिका, धर्मशाला, पाठशाला, औषधालय आदि, यज्ञ, दान, तप, वेदपाठ,



आत्मा का विचार, इन्द्रियों को जीतना, मन का दमन और कर्मों का त्याग अर्थात् संन्यास करने से ॥३४॥



योगेन विविधांगेन भक्तियोगेन चैव हि ।



धर्मेणोभयचिह्नेन यः प्रवृत्तिनिवृत्तिमान्॥३५॥



अनेक अंग के योगाभ्यास, भक्तियोग, दृढवैराग्य, सकाम, निष्काम धर्म, प्रवृत्ति निवृत्ति मार्ग में निष्ठा से ॥३५॥



आत्मतत्त्वावबोधेन वैराग्येण दृढेन च ।



ईयते भगवानेभिः सगुणो निर्गुणः स्वदृक् ॥३६॥



आत्मतत्त्वबोध, दृढ वैराग्य - सगुण निर्गुण रूप भगवान की इन सब साधनों से प्राप्ति होती है ॥३६॥



प्रावोचं भक्तियोगस्य स्वरूपं ते चतुर्विधम् ।



कालस्य चाव्यक्तगतेर्येऽन्तर्धावति जंतुषु ॥३७॥



मैं ने भक्ति योग का स्वरूप तुम से चार प्रकार का कहा और संसार के संहारकर्ता अप्रगट गतिवाले काल का भी स्वरूप तुम से कहा ॥३७॥



जीवस्य संसृतीर्बह्वीरविद्याकर्मनिर्मिताः ।



यास्वंग प्रविशन्नात्मा न वेद गतिमात्मनः ॥३८॥



हे माता ! विद्या प्राणी की अनेक योनि की अविद्या कर्म से निर्मित होती हैं, जिन की गतियों में प्रविष्ट होने से अपने शुद्ध स्वरूप को भूल जाता है,



जैसा है वैसा नहीं जानता और न ईश्वर की गति को पहिचानता है ॥३८॥



नैतत्खलायोपदिशेन्नाविनीताय कर्हिचित् ।



न स्तब्धाय न भिन्नाय नैव धर्मध्वजाय च ॥३९॥



यह ज्ञान खल, अविनयी, अभिमानी, दुराचारी, पाखण्डी को कभी सुनाना नहीं चाहिये ॥३९॥



न लोलुपायोपदिशेन्न गृहारूढचेतसे ।



नाभक्ताय च मे जातु न मद्भक्तद्विषामपि ॥४०॥



लोभी को, गृहस्थित अभक्त को और मेरे भक्तों का द्रोह करने वालों को तो कभी भूलकर यह ज्ञान नहीं सुनावै ॥४०॥



श्रद्दधानाय भक्ताय विनीतायानसूयवे ।



भूतेषु कृतमैत्राय शुश्रूषाऽभिरताय च ॥४१॥



इस ज्ञान के सुनने के अधिकारी वे हैं जो श्रद्धालु भक्त, नम्र, किसी से शत्रुता न करें, जीवमात्र से मित्रता करनेवाला, शुश्रुषा करने वाला मेरी



सेवा में तत्पर हो ॥४१॥



बहिर्जातविरागाय शांतचित्ताय दीयताम् ।



निर्मत्सराय शुचये यस्याहं प्रेयसां प्रियः ॥४२॥



बहिर्मुख, वैराग्यवाला, शान्त चित्तवाला, मत्सरतारहित, पवित्रआत्मा, जो मुझ को सबसे अधिक प्यारा माने, ऐसे पुरुषों को यह ज्ञान उपदेश



करना उचित है ॥४२॥



य इदं शृणुयादम्ब श्रद्धया पुरुषः सकृत् ।



यो वाऽभिधत्ते मच्चित्तः स ह्येति पदवीं च मे ॥४३॥



हे अम्ब ! जो पुरुष श्रद्धा से वारंवार इस कथा को सुनै और कहै वह मुझ में मिल कर मेरी पदवी को प्राप्त होगा ॥४३॥



इति श्रीकपिलगीताभाषाटीकायां संपूर्णवर्णनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥८॥



॥ समाप्तोऽयं ग्रन्थः ॥