उद्धवगीता - अध्याय -१
उद्धव उवाच:
देवदेवेश योगेश पुण्यश्रवणकीर्तन ।
संहृत्यैतत् कुलं नूनं लोकं संत्यक्ष्यते भवान् ।
विप्रशापं समर्थोऽपि प्रत्यहन्न यदीश्वरः ॥१॥ उद्धवजी ने कहा -योगेश्वर! आप देवाधिदेवों के भी अधीश्वर हैं। आपकी लीलाओं के श्रवण-कीर्तन से जीव पवित्र हो जाता है। आप सर्वशक्तिमान् परमेश्वर हैं। आप चाहते,
तो ब्राह्मणों के शाप को मिटा सकते थे । परंतु आपने वैसा किया नहीं।इससे मैं यह समझ गया कि अब आप यदुवंश का संहार करके, इसे समेट कर अवश्य ही
इस लोक का परित्याग कर देंगे ॥१॥
नाहं तवाङ्घ्रिकमलं क्षणार्धमपि केशव ।
त्यक्तुं समुत्सहे नाथ स्वधाम नय मामपि ॥२॥
परंतु घुँघराली अलकों बाले श्यामसुन्दर ! मैं आधे क्षण के लिये भी आपके चरणकमलों के त्याग की बात सोच भी नहीं सकता। मेरे जीवनसर्वस्व ! मेरे स्वामी !
आप मुझे भी अपने धाम में ले चलिये ॥२॥
तव विक्रीडितं कृष्ण नृणां परममङ्गलम् ।
कर्णपीयूषमास्वाद्य त्यजत्यन्यस्पृहांजनःll३ll
शय्यासनाटनस्थानस्नानक्रीडाशनादिषु
कथं त्वां प्रियमात्मानं वयं भक्तास्त्यजेमहि ll४ll
प्यारे कृष्ण आपकी एक-एक लीला मनुष्यों के लिये परम मङ्गलमयी और कानों के लिये अमृतस्वरूप है। जिसे एक बार उस रसका चसका लग जाता है,
उसके मन में फिर किसी दूसरी वस्तु के लिये लालसा ही नहीं रह जाती। प्रभो! हम तो उठते-बैठते,सोते-जागते,घूमते-फिरते आपके साथरहे हैं,
हमने आपके साथ स्नान किया, खेल खेले, भोजन किया; कहाँ तक गिनायें, हमारी एक-एक चेष्टा आपके साथ होती रही। आप हमारे प्रियतम हैं,
और तो क्या आप हमारे आत्मा ही हैं। ऐसी स्थिति में हम आपके प्रेमी भक्त आपको कैसे छोड़ सकते हैं॥३-४॥
त्वयोपभुक्तस्रग्गन्धवासोऽलंकारचर्चिताः ।
उच्छिष्टभोजिनो दासास्तव मायां जयेमहि ॥५॥
हमने आपकी धारण की हुई माला पहनी, आपके लगाये हुए चंदन लगाये, आपके उतारे हुए वस्त्र पहने और आपके धारण किये हुए गहनों से
अपनेआप को सजाते रहे। हम आपकी जूठन खाने वाले सेवक हैं।इसीलिए हम आपकी मायापर अवश्य ही विजय प्राप्त करलेंगे।
(अतः प्रभो! हमें आपकी माया का डर नहीं है, डर है तो केवल आपके वियोग का)॥५॥
वातरशना य ऋषयः श्रमणा ऊर्ध्वमन्थिनः ।
ब्रह्माख्यं धाम ते यान्ति शान्ताः संन्यासिनोऽमलाः ॥६॥
हम जानते हैं कि माया को पार कर लेना बहुत ही कठिन है।बड़े बड़े ऋषि-मुनि दिगम्बर रहकर और आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का पालन कर के
अध्यात्मविद्या के लिये अत्यन्त परिश्रम करते हैं। इस प्रकार की कठिन साधना से उन संन्यासियों के हृदय निर्मल हो पाते हैं और तब कहीं वे समस्त वृत्तियों की शान्तिरूप
नैष्कर्म्य-अवस्था में स्थित होकर आप के ब्रह्मनामक धाम को प्राप्त होते हैं ॥६॥
वयं त्विह महायोगिन् भ्रमन्तः कर्मवर्त्मसु ।
त्वद्वार्तया तरिष्यामस्तावकैर्दुस्तरं तमः ॥७॥
स्मरन्तः कीर्तयन्तस्ते कृतानि गदितानि च ।
गत्युत्स्मितेक्षणक्ष्वेलि यन्नृलोकविडम्बनम्॥८॥
महायोगेश्वर ! हम लोग तो कर्ममार्ग में ही भ्रम-भटक रहे हैं । परंतु इतना निश्चित है कि हम आपके भक्तजनों के साथ आप के गुणों और लीलाओं की चर्चा करेंगे तथा
मनुष्य की सी लीला करते हुए आपने जो कुछ किया या कहा है, उसका स्मरण-कीर्तन करते रहेंगे।साथही आपकी चाल-ढाल, मुसकान चितवन और हास-परिहास
की स्मृति में तल्लीन हो जायेंगे। केवल इसी से हम दुस्तर माया को पार कर लेंगे। (इसलिये हमें मायासे पार जाने की नहीं, आपके विरह की चिन्ता है।
आप हमें छोड़िये नहीं, साथ ले चलिये ) ॥७-८॥
श्रीशुक उवाच:
एवं विज्ञापितो राजन् भगवान् देवकीसुतः ।
एकान्तिनं प्रियं भृत्यमुद्धवं समभाषत ॥९॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित् ! जब उद्धवजी ने देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण से इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने अपने अनन्यप्रेमी सखा एवं सेवक
उद्धवजी से कहा ॥९॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे पष्ठोऽध्यायः ॥६॥