उद्धवगीता - अध्याय -२
अवधूतोपाख्यान- पृथ्वी से लेकर कबूतरतक आठ गुरुओं की कथा
श्रीभगवानुवाच
यदात्थ मां महाभाग तच्चिकीर्षितमेव मे ।
ब्रह्मा भवो लोकपालाः स्वर्वासं मेऽभिकाङ्क्षिणः ॥१॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा- महाभाग्यवान् उद्धव! तुमने मुझसे जो कुछ कहा है मैं यही करना चाहता हूँ । ब्रह्मा, शंकर और इन्द्रादि लोकपाल भी अब यही चाहते
हैं कि मैं उनके लोकों में होकर अपने धामको चला जाऊँ ॥१॥
मया निष्पादितं ह्यत्र देवकार्यमशेषतः ।
यदर्थमवतीर्णोऽहमंशेन ब्रह्मणार्थितः ॥२॥
पृथ्वीपर देवताओं का जितना काम करना था, उसे मैं पूरा कर चुका। इसी काम के लिये। ब्रह्माजी की प्रार्थना से में बलरामजी के साथ अवतीर्ण हुआ था ॥२॥
कुलं वै शापनिर्दग्धं नङ्क्षयत्यन्योन्यविग्रहात् ।
समुद्रः सप्तमेऽह्नयेतां पुरीं च प्लावयिष्यति ॥३॥
अब यह यदुवंश, जो ब्राह्मणों के शाप से भस्म हो चुका है, पारस्परिक फूट और युद्ध से नष्ट हो जायगा। आज के सातवें दिन समुद्र इस पुरी -द्वारका को डुबो देगा ॥३॥
यर्ह्येवायं मया त्यक्तो लोकोऽयं नष्टमङ्गलः।
भविष्यत्यचिरात् साधो कलिनापि निराकृतः ॥४॥
प्यारे उद्भव ! जिस क्षण में मर्त्यलोक का परित्याग कर दूँगा, उसी क्षण इसके सारे मङ्गल नष्ट हो जायेंगे और थोड़े ही दिनों में पृथ्वीपर कलियुग का बोलबाला हो जायगा ॥४॥
न वस्तव्यं त्वयैवेह मया त्यक्ते महीतले ।
जनोऽधर्मंरुचिर्भद्र भविष्यति कलौ युगे ॥५॥
जब मैं इस पृथ्वी का त्याग कर दूँ, तब तुम इसपर मत रहना; क्योंकि साधु उद्भव! कलियुग में अधिकांश लोगों की रुचि अधर्म में ही होगी ॥५॥
त्वं सर्व परित्यज्य स्नेहं स्वजनबन्धुषु ।
मय्यावेश्य मनः सम्यक् समदृग् विचरस्व गाम् ॥६॥
अब तुम अपने आत्मीय वजन और बन्धु-बान्धवों का स्नेह सम्बन्ध छोड़ दो और अनन्य प्रेम से मुझमें अपना मन लगाकर समदृष्टि से पृथ्वी में स्वच्छन्द विचरण करो ॥६॥
यदिदं मनसा वाचा चक्षुर्भ्यां श्रवणादिभिः ।
नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि माया मनोमयम् ॥७॥
इस जगत् में जो कुछ मनसे सोचा जाता है, वाणी से कहा जाता है, नेत्रों से देखा जाता है और श्रवण आदि इन्द्रियों से अनुभव किया जाता है, वह सब नाशवान् है।
सपने की तरह मन का बिलास है,इसलिये मायामात्र है,मिथ्या है-ऐसा समझलो ॥७॥
पुंसोऽयुक्त्तस्य नानार्थो भ्रमः स गुणदोषभाक्
कर्माकर्मविकर्मेति गुणदोषधियो भिदा ॥८॥
जिस पुरुष का मन अशान्त है, असंयत है, उसी को पागल की तरह अनेकों वस्तुएँ मालूम पड़ती हैं; वास्तव में यह चित्त का भ्रम ही है। नानात्व का भ्रम हो
जानेपर ही 'यहगुण है' और 'यहदोष' इस प्रकार की कल्पना करनी पड़ती है। जिसकी बुद्धि में गुण और दोषका भेद बैठ गया है, दृढमूल हो गया है,
उसी के लिये कर्म, अकर्म और विकर्म रूपभेद का प्रतिपादन हुआ है ॥८॥
तस्माद् युक्तेन्द्रियग्रामो युक्तचित्त इदं जगत् ।
आत्मनीक्षस्व विततमात्मानं मय्यधीश्वरे ॥९॥
इसलिये उद्धव! तुम पहले अपनी समस्त इन्द्रियों को अपने वश में करलो, उनकी बागडोर अपने हाथमें लेलो और केवल इन्द्रियों को ही नहीं, चित्तकी समस्त
वृत्तियों को भी रोक लो और फिर ऐसा अनुभव करो कि यह सारा जगत् अपने आत्मा में ही फैला हुआ है और आत्मा मुझ सर्वात्मा इन्द्रियातीत ब्रह्म से एक है, अभिन्न है ॥९॥
ज्ञानविज्ञानसंयुक्त आत्मभूतः शरीरिणाम् ।
आत्मानुभव तुष्टात्मा नान्तरायैर्विहन्यसे ॥१०॥
जब वेदोंके मुख्य तात्पर्य-निश्चयरूप ज्ञान और अनुभवरूप विज्ञान से भलीभाँति सम्पन्न होकर तुम अपने आत्मा के अनुभव में ही आनन्दमग्न रहोगे और सम्पूर्ण देवता
आदि शरीरधारियों के आत्मा हो जाओगे ! इसलिये किसी भी विघ्न से तुम पीड़ित नहीं हो सकोगे; क्योंकि उन विघ्नों और विघ्न करनेवालोंकी अत्मा भी तुम्हीं होगे ॥१०॥
दोषबुद्धयोभयातीतो निषेधान्न निवर्तते ।
गुणबुद्धया च विहितं न करोति यथार्भकः ॥११॥
जो पुरुष गुण और दोष- बुद्धि से अतीत हो जाता है, वह बालक के समान निषिद्ध कर्मसे निवृत होता है, परंतु दोष-बुद्धि से नहीं। वह विहित कर्म का अनुष्ठान भी करता है,
परंतु गुण-बुद्धि से नहीं ॥११॥
सर्वभूतसुहृच्छान्तो ज्ञानविज्ञाननिश्चयः ।
पश्यन् मदात्मकं विश्वं न विषद्येत वै पुनः ॥१२॥
जिसने श्रुतियों के तात्पर्य का यथार्थ ज्ञान ही नहीं प्राप्त कर लिया, बल्कि उनका साक्षात्कार भी कर लिया है और इस प्रकार जो अटल निश्चय से सम्पन्न हो गया है,
वह समस्त प्राणियों का हितैषी सुहृद होता है और उसकी कृतियाँ सर्वथा शांत रहती हैं। वह समस्त प्रतीयमान विश्व को मेरा ही रूप- आत्मस्वरूप देखता है;
इसलिये उसे कभी जन्म-मृत्यु चक्कर में नहीं पड़ना पड़ता ॥१२॥
श्रीशुक उवाच
इत्यादिष्टो भगवता महाभागवतो नृप ।
उद्धवः प्रणिपत्याह तत्वजिज्ञासुरच्युतम् ॥१३॥
श्री शुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित्! जब भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार आदेश दिया, तब भगवान् के परम प्रेमी उद्धवजी ने उन्हें प्रणाम करके तत्वज्ञान की प्राप्ति
की इच्छा से यह प्रश्न किया ॥१३॥
उद्धव उवाच
योगेश योगविन्यास योगात्मन् योगसम्भव ।
निःश्रेयसाय मे प्रोक्तस्त्यागः संन्यास लक्षणः ॥१४॥
उद्धवजी ने कहा-भगवन्! आप ही समस्त योगियों की गुप्त पूँजी योगोंके कारण और योगेश्वर हैं।आपही समस्त योगोंके आधार, उनके कारण और योगरूप मी हैं।
आपने मेरे परम कल्याण के लिये उस संन्यासरूप त्याग का उपदेश किया है ॥१४॥
त्यागोऽयं दुष्करो भूमन् कामानां विषयात्मभिः ।
सुतरां त्वयि सर्वात्मन्नभक्तैरिति मे मतिः ॥१५॥
परंतु अनन्त! जो लोग विषयों के चिन्तन और सेवन में घुल-मिल गये हैं, विषयात्मा हो गये हैं, उनके लिये विषय-भोगों और
कामनाओं का त्याग अत्यन्त कठिन है। सर्वस्वरूप! उनमें भी जो लोग आपसे विमुख हैं, उनके लिये तो इस प्रकार का त्याग सर्वथा असम्भव ही है ऐसा मेरा निश्चय है ॥१५॥
सोऽहं ममाहमिति मूढमतिबिंगाढ-स्त्वन्मायया विरचितात्मनि सानुबन्धे ।
तत्त्वन्जसा निगदितं भवता यथाहंसंसाधयामि भगवन्ननुशाधि भृत्यम् ॥१६॥
प्रभो ! मैं भी ऐसा ही हूँ, मेरी मति इतनी मूड हो गयी है कि यह मैं हूँ, यह मेरा है इस भाव से में आपकी माया के खेल, देह और देह के सम्बन्धी स्त्री, पुत्र, धन आदि में डूब रहा हूँ।
अतः भगवन्! आपने जिस संन्यास का उपदेश किया है, उसका तत्व मुझ सेवक को इस प्रकार समझाइये कि मैं सुगमतापूर्वक उसका साधन कर सकूँ ॥१६॥
सत्यस्य ते स्वदृश आत्मन आत्मनोऽन्यं-वक्तारमीश विबुधेष्वपि नानुचक्षे ।
सर्वे विमोहितधियस्तव माययेमे-ब्रह्मादयस्तनुभृतो वाहिरर्थभावाः ॥१७॥
मेरे प्रभो! आप भूत, भविष्य, वर्तमान इन तीनों कालोंसे अबाधित एकरस सत्य हैं। आप दूसरे के द्वारा प्रकाशित नहीं, स्वयंप्रकाश आत्मरूप हैं ।
प्रभो मैं समझता हूँ कि मेरे लिये आत्मतत्व का उपदेश करनेवाला आपके अतिरिक्त देवताओं में भी कोई नहीं है। ब्रह्मा आदि जितने बड़े-बड़े देवता हैं,
वे सब शरीराभिमानी होने के कारण आपकी माया से मोहित हो रहे हैं। उनकी बुद्धि मायाके वशमें हो गयी है। यहीकारण है कि वे इन्द्रियोंसे अनुभव किये जाने वाले बाह्य विषयों को
सत्य मानते हैं। इसीलिये मुझे तो आप की उपदेश कीजिये॥१७॥
तस्माद् भवन्तमनवद्यमनन्तपारं-सर्वज्ञमीश्वरमकुण्ठविकुण्ठधिष्ण्यम् ।
निर्विण्णधीरहमु ह वृजिनाभितप्तो-नारायणं नरसखं शरणं प्रपद्ये ॥१८॥
भगवन्! इसीसे चारों ओर से दुःखों की दावाग्नि से जलकर और विरक्त होकर मैं आपकी शरण में आया हूँ । आप निर्दोष देश-काल से अपरिच्छिन्न, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और
अविनाशी वैकुण्ठलोक के निवासी एवं नर के नित्य सखा नारायण है।(अतः आप ही मुझे उपदेश कीजिये ) ॥१८॥
श्रीभगवानुवाच
प्रायेण मनुजा लोकतत्त्वविचक्षणाः ।
समुद्धरन्ति ह्यात्मानमात्मनैवाशुभाशयात् ॥१९॥
भगवान श्रीकृष्णने कहा-उद्धव! संसार में जो मनुष्य यह जगत् क्या है। इसमें क्या हो रहा है? इत्यादि बातों का विचार करने में निपुण हैं, वे चित्तमें भरी हुई
अशुभ वासनाओसे अपने-आपको स्वयं अपनी विवेक शक्ति से ही प्रायः बचा लेते हैं ॥१९॥
आत्मनो गुरुरात्मैव पुरुषस्य विशेषतः ।
यत् प्रत्यक्षानुमानाभ्यां श्रेयोऽसावनुविन्दते ॥२०॥
समस्त प्राणियों का विशेषकर मनुष्य का आत्मा अपने हित और अहित का उपदेशक गुरु है क्योंकि मनुष्य अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अनुमान के द्वारा
करने हित-अहित का निर्णय करने में पूर्णतः समर्थ है ॥२०॥
पुरुषत्वे मां धीराः सांख्ययोगविशारदाः ।
आविस्तरां प्रपश्यन्ति सर्वशक्त्युपहितम् ॥२१॥ सांख्ययोगविशारद धीर पुरुष इस मनुष्ययोनि में इन्द्रियशक्ति, मनःशक्ति आदि के आश्रयभूत मुझ आत्मतत्व को पूर्णतः प्रकट रूप से साक्षात्कार कर लेते हैं ॥२१॥
एकद्वित्रिचतुष्पादो बहुपादस्तथापदः ।
बह्वय्ः सन्ति पुरःसृष्टास्तासां मे पौरुषी प्रिया ॥२२॥
मैने एक पैरवाले, दो पैरवाले, तीन पैरवाले, चार पैरवाले, चार से अधिक पैरवाले और बिना पैर के इत्यादि अनेक प्रकार के शरीरोंका निर्माण किया है। उनमें मुझे सबसे
अधिक प्रिय मनुष्य का ही शरीर है ॥२२॥
अत्र मां मार्गयन्त्यद्धा युक्ता हेतुभिरीश्वरम् ।
गृहमाणैर्गुणैर्लिड्गेरग्राह्यमनुमानतः ॥२३॥
इस मनुष्य शरीर में एकाग्रचित्त तीक्ष्णबुद्धि पुरुष बुद्धि आदि ग्रहण किये जानेवाले हेतुओं से जिनसे कि अनुमान भी होता है, अनुमान से अग्राह्य
अर्थात् अहंकार आदि विषयों से भिन्न मुझ सर्वप्रवर्तक ईश्वर को साक्षात् अनुभव करते है' ॥२३॥
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
अवधूतस्य संवाद यदोरमिततेजसः ॥२४॥
इस विषयमें महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास परम तेजस्वी अवधूत दत्तारेय और राजा यदु के संवाद के रूप में है॥२४॥
अवधूतं द्विजं कंचिचरन्तमकुतोभयम् ।
कविं निरीक्ष्म तरुणं यदुः पप्रच्छ धर्मवित् ॥२५॥
एक बार धर्म के मर्मज्ञ राजा यदु ने देखा कि एक त्रिकालदर्र्शी तरुण अवधूत ब्राह्मण निर्भय विचर रहे हैं। तब उन्होंने यह प्रश्न किया॥२५॥
यदुरुवाच
कुतो बुद्धिरियं मह्मण सुविशारदा ।
यामाखाय भोधिरति बलवत् ॥२६॥
राजा यदुने पूछा- ब्रह्मन् ! आप कर्म तो करते नहीं, फिर आपको यह अत्यन्त निपुण बुद्धि कहाँसे प्राप्त हुई ? जिसका आश्रय लेकर आप परम विद्वान् होनेपर भी बालक के समान संसार में विचरते रहते हैं ॥२६॥
प्रायो धर्मार्थकामेषु विवित्सायां च मानवाः ।
हेतुनैव समीहन्ते आयुषो यशसः श्रियः ॥२७॥
ऐसा देखा जाता है कि मनुष्य आयु, यश अथवा सौन्दर्य-सम्पत्ति आदि की अभिलाषा लेकर ही धर्म,अर्थ,काम अथवा तत्त्व-जिज्ञासा में प्रवृत्त होते हैं;
अकारण कहीं किसी की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती ॥२७॥
त्वं तु कल्पः कविर्दक्षः सुभगोऽमृतभाषणः ।
न कर्ता नेहसे किञ्चिज्जडोन्मत्तपिशाचवत् ॥२८॥
मैं देख रहा हूँ कि आप कर्म करनेमें समर्थ, विद्वान् और निपुण हैं। आपका भाग्य और सौन्दर्य भी प्रशंसनीय है। आपकी वाणी से तो मानो अमृत टपक रहा है। फिर भी आप जड,
उन्मत्त अथवा पिशाच के समान रहते हैं; न तो कुछ करते हैं और न चाहते ही हैं ॥२८॥
जनेषु दह्यमानेषु कामलोभदवाग्निना ।
न तप्यसेऽग्निना मुक्तो गङ्गाम्भःस्थ इव द्विपः ॥२९॥
संसार के अधिकांश लोग काम और लोभ के दावानल से जल रहे हैं। परन्तु आपको देखकर ऐसा मालूम होता है कि आप मुक्त हैं, आपतक उसकी आँच भी नहीं पहुँच पाती;
ठीक वैसे ही जैसे कोई हाथी वनमें दावाग्नि लगनेपर उससे छूटकर गङ्गाजल में खड़ा हो ॥२९॥
त्वं हि नः पृच्छतां ब्रह्मन्नात्मन्यानन्दकारणम् ।
ब्रूहि स्पर्शविहीनस्य भवतः केवलात्मनः ॥३०॥
ब्रह्मन् ! आप पुत्र, स्त्री, धन आदि संसार के स्पर्श से भी रहित हैं। आप सदा-सर्वदा अपने केवल स्वरूप में ही स्थित रहते हैं। हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मा
में ही ऐसे अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव कैसे होता है ? आप कृपा करके अवश्य बतलाइये ॥३०॥
श्रीभगवानुवाच
यदुनैवं महाभागो ब्रह्मण्येन सुमेधसा ।
पृष्टः सभाजितः प्राह प्रश्रयावनतं द्विजः ॥३१॥
भगवान् श्रीकृष्णने कहा- उद्धव ! हमारे पूर्वज महाराज यदु की बुद्धि शुद्ध थी और उनके हृदय में ब्राह्मण-भक्ति थी। उन्होंने परमभाग्यवान् दत्तात्रेयजी का
अत्यन्त सत्कार करके यह प्रश्न पूछा और बड़े विनम्रभाव से सिर झुकाकर वे उनके सामने खड़े हो गये। अब दत्तात्रेयजी ने कहा ॥३१॥
ब्राह्मण उवाच
सन्ति मे गुरवो राजन् बहवो बुद्ध्युपाश्रिताः ।
यतो बुद्धिमुपादाय मुक्तोऽटामीह ताञ्छृणु ॥३२॥
ब्रह्मवेत्ता दत्तात्रेयजीने कहा- राजन् ! मैंने अपनी बुद्धि से बहुत-से गुरुओं का आश्रय लिया है, उनसे शिक्षा ग्रहण करके मैं इस जगत् में मुक्तभाव से स्वच्छन्द विचरता हूँ । तुम उन गुरुओं के नाम और उनसे ग्रहण की हुई शिक्षा सुनो ॥३२॥
पृथिवी वायुराकाशमापोऽग्निश्चन्द्रमा रविः ।
कपोतोऽजगरः सिन्धुः पतङ्गो मधुकृद् गजः ॥३३॥
मधुहा हरिणो मीनः पिङ्गला कुररोऽर्भकः ।
कुमारी शरकृत् सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत् ॥३४॥
मेरे गुरुओंके नाम हैं-पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौंरा या मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालनेवाला, हरिन, मछली, पिङ्गला वेश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुँआरी कन्या, बाण बनानेवाला, सर्प, मकड़ी और भृङ्गी कीट ॥३३-३४॥
एते मे गुरवो राजंश्चतुर्विंशतिराश्रिताः ।
शिक्षा वृत्तिभिरेतेषामन्वशिक्षमिहात्मनः ॥३५॥
राजन्! मैंने इन चौबीस गुरुओंका आश्रय लिया है और इन्हीं के आचरण से इस लोक में अपने लिये शिक्षा ग्रहण की है ॥३५॥
यतो यदनुशिक्षामि यथा वा नाहुषात्मज ।
तत्तथा पुरुषव्याघ्र निबोध कथयामि ते ॥३६॥
वीरवर ययातिनन्दन ! मैंने जिससे जिस प्रकार जो कुछ सीखा है, वह सब ज्यों-का-त्यों तुमसे कहता हूँ, सुनो ॥३६॥
भूतैराक्रम्यमाणोऽपि धीरो दैववशानुगैः ।
तद् विद्वान्न चलेन्मार्गादन्वशिक्षं क्षितेर्व्रतम् ॥३७॥
मैंने पृथ्वीसे उसके धैर्य की, क्षमा की शिक्षा ली है। लोग पृथ्वी पर कितना आघात और क्या- क्या उत्पात नहीं करते; परन्तु वह न तो किसी से बदला लेती है और न रोती- चिल्लाती है। संसार के सभी प्राणी अपने-अपने प्रारब्ध के अनुसार चेष्टा कर रहे हैं, वे समय-समय पर भिन्न-भिन्न प्रकारसे जान या अनजान में आक्रमण कर बैठते हैं। धीर पुरुष को चाहिये कि उनकी विवशता समझे, न तो अपना धीरज खोवे और न क्रोध करे । अपने मार्गपर ज्यों-का-त्यों चलता रहे ॥३७॥
शश्वत्परार्थसर्वेहः परार्थैकान्तसम्भवः ।
साधुः शिक्षेत भूभृत्तो नगशिष्यः परात्मताम् ॥३८॥
पृथ्वी के ही विकार पर्वत और वृक्ष से मैने यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे उनकी सारी चेष्टाएँ सदा-सर्वदा दूसरों के हित के लिये ही होती हैं, बल्कि यों कहना चाहिये कि उनका जन्म ही एकमात्र दूसरों का हित करने के लिये ही हुआ है, साधु पुरुष को चाहिये कि उनकी शिष्यता स्वीकार करके उनसे परोपकार की शिक्षा ग्रहण करे ॥३८॥
प्राणवृत्त्यैव सन्तुष्येन्मुनिर्नैवेन्द्रियप्रियैः ।
ज्ञानं यथा न नश्येत नावकीर्येत वाङ्मनः ॥३९॥
मैंने शरीर के भीतर रहनेवाले वायु-प्राणवायु से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह आहारमात्र की इच्छा रखता है और उसकी प्राप्ति से ही सन्तुष्ट हो जाता है, वैसे ही साधक को भी चाहिये कि जितने से जीवन-निर्वाह हो जाय, उतना भोजन कर ले। इन्द्रियों को तृप्त करने के लिये बहुत-से विषय न चाहे। संक्षेप में उतने ही विषयों का उपयोग करना चाहिये, जिनसे बुद्धि विकृत न हो, मन चञ्चल न हो और वाणी व्यर्थ की बातों में न लग जाय ॥३९॥
विषयेष्वाविशन् योगी नानाधर्मेषु सर्वतः ।
गुणदोषव्यपेतात्मा न विषज्जेत वायुवत् ॥४०॥
शरीर के बाहर रहनेवाले वायु से मैने यह सीखा है कि जैसे वायु को अनेक स्थानों में जाना पड़ता है, परन्तु वह कहीं भी आसक्त नहीं होता, किसीका भी गुण-दोष नहीं अपनाता, वैसे ही साधक पुरुषभी आवश्यकता होनेपर विभिन्न प्रकार के धर्म और स्वभाव वाले विषयों में जाय, परन्तु अपने लक्ष्यपर स्थिर रहे। किसी के गुण या दोष की ओर झुक न जाय, किसी से आसक्ति या द्वेष न कर बैठे ॥४०॥
पार्थिवेष्विह देहेषु प्रविष्टस्तद्गुणाश्रयः ।
गुणैर्न युज्यते योगी गन्धैर्वायुरिवात्मदृक् ॥४१॥
गन्ध वायु का गुण नहीं, पृथ्वी का गुण है। परन्तु वायु को गन्ध का वहन करना पड़ता है। ऐसा करने पर भी वायु शुद्ध ही रहता है, गन्ध से उसका सम्पर्क नहीं होता। वैसे ही साधक का जब तक इस पार्थिव शरीरसे सम्बन्ध है, तबतक उसे इसकी व्याधि- पीड़ा और भूख-प्यास आदि का भी वहन करना पड़ता है।परन्तु अपने को शरीर नहीं, आत्मा के रूपमें देखनेवाला साधक शरीर और उसके गुणों का आश्रय होने पर भी उनसे सर्वथा निर्लिप्त रहता है ॥४१॥
अन्तर्हितश्च स्थिरजड्गमेषु
ब्रह्मात्मभावेन समन्वयेन ।
व्याप्त्याव्यवच्छेदमसङ्गमात्मनो
मुनिर्नभस्त्वं विततस्य भावयेत् ॥४२॥
राजन् ! जितने भी घट-मठ आदि पदार्थ हैं, वे चाहे चल हों या अचल, उनके कारण भिन्न-भिन्न प्रतीत होनेपर भी वास्तव में आकाश एक और अपरिच्छिन्न (अखण्ड) ही है । वैसे ही चर-अचर जितने भी सूक्ष्म-स्थूल शरीर हैं, उनमें आत्मारूप से सर्वत्र स्थित होने के कारण ब्रह्म सभी में है। साधक को चाहिये कि सूत के मनियों में व्याप्त सूत के समान आत्मा को अखण्ड और असङ्गरूप से देखे । वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाश से ही की जा सकती है। इसलिये साधक को आत्मा की आकाशरूपता की भावना करनी चाहिये ॥४२॥
तेजोऽबन्नमयैर्भावैर्मेघाद्यैर्वायुनेरितैः
न स्पृश्यते नभस्तद्वत् कालसृष्टैर्गुणैः पुमान् ॥४३॥
आग लगती है, पानी बरसता है, अन्न आदि पैदा होते और नष्ट होते हैं, वायु की प्रेरणा से बादल आदि आते और चले जाते हैं: यह सब होनेपर भी आकाश अछूता रहता है। आकाश की दृष्टि से यह सबकुछ है ही नहीं। इसी प्रकार भूत, वर्तमान और भविष्य के चक्कर में न जाने किन-किन नामरूपों की सृष्टि और प्रलय होते हैं; परन्तु आत्माके साथ उनका कोई संस्पर्श नहीं है ॥४३॥
स्वच्छः प्रकृतितः स्निग्धो माधुर्यस्तीर्थभूर्नृणाम् ।
मुनिः पुनात्यपां मित्रमीक्षोपस्पर्शकीर्तनैः ॥४४॥
जिस प्रकार जल स्वभावसे ही स्वच्छ, चिकना, मधुर और पवित्र करनेवाला होता है तथा गङ्गा आदि तीर्थो के दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारण से भी लोग पवित्र हो जाते हैं-वैसे ही साधक को भी स्वभाव से ही शुद्ध, स्निग्ध, मधुरभाषी और लोक पावन होना चाहिये। जल से शिक्षा ग्रहण करनेवाला अपने दर्शन, स्पर्श और नामोच्चारण से लोगों को पवित्र कर देता है ॥४४॥
तेजस्वी तपसा दीप्तो दुर्धर्षोदरभाजनः ।
सर्वभक्षोऽपि युक्तात्मा नादत्ते मलमग्निवत् ॥४५॥
राजन् ! मैंने अग्नि से यह शिक्षा ली है कि जैसे वह तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है, जैसे उसे कोई अपने तेजसे दबा नहीं सकता, जैसे उसके पास संग्रह-परिग्रह के लिये कोई पात्र नहीं-सब कुछ अपने पेट में रख लेती है, और जैसे सब कुछ खा-पी लेने पर भी विभिन्न वस्तुओं के दोषों से वह लिप्त नहीं होती वैसे ही साधक भी परम तेजस्वी, तपस्या से देदीप्यमान, इन्द्रियों से अपराभूत, भोजनमात्र का संग्रही और यथायोग्य सभी विषयों का उपभोग करता हुआ भी अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखे, किसी का दोष अपने में न आने दे ॥४५॥
क्वचिच्छन्नः क्वचित् स्पष्ट उपास्यः श्रेय इच्छताम् ।
भुङ्क्ते सर्वत्र दातॄणां दहन् प्रागुत्तराशुभम् ॥४६॥
जैसे अग्नि कहीं (लकड़ी आदि में) अप्रकट रहती है और कहीं प्रकट, वैसेही साधक भी कहीं गुप्त रहे और कहीं प्रकट होजाय। वह कहीं-कहीं ऐसे रूपमें भी प्रकटहो जाता है, जिससे कल्या-णकामी पुरुष उसकी उपासना कर सकें। वह अग्नि के समान ही भिक्षारूप हवन करने वालों के अतीत और भावी अशुभ को भस्म कर देता है तथा सर्वत्र अन्न ग्रहण करता है ॥४६॥
स्वमायया सृष्टमिदं सदसल्लक्षणं विभुः ।
प्रविष्ट ईयते तत्तत्स्वरूपोऽग्निरिवैधसि ॥४७॥
साधक पुरुष को इसका विचार करना चाहिये कि जैसे अग्नि लम्बी- चौड़ी, टेढ़ी-सीधी लकड़ियों में रहकर उनके समान ही
सीधी-टेढ़ी या लम्बी-चौड़ी दिखायी पड़ती है-वास्तव में वह वैसी है नहीं; वैसे ही सर्वव्यापक आत्मा भी अपनी माया से रचे हुए कार्य-कारण रूप जगत में व्याप्त होने के कारण उन उन वस्तुओं के नाम-रूप से कोई सम्बन्ध न होने पर भी उनके रूप में प्रतीत होने लगता है ॥४७॥
विसर्गाद्याः श्मशानान्ता भावा देहस्य नात्मनः ।
कलानामिव चन्द्रस्य कालेनाव्यक्तवर्त्मना ॥४८॥
मैंने चन्द्रमा से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यद्यपि जिसकी गति नहीं जानी जा सकती, उस काल के प्रभाव से चन्द्रमा की कलाएँ घटती-बढ़ती रहती हैं, तथापि चन्द्रमा तो चन्द्रमा ही है, वह न घटता है और न बढ़ता ही है; वैसे ही जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जितनी भी अवस्थाएँ हैं, सब शरीर की हैं, आत्मा से उनका कोई भी सम्बन्ध नहीं है ॥४८॥
कालेन ह्योघवेगेन भूतानां प्रभवाप्ययौ ।
नित्यावपि न दृश्येते आत्मनोऽग्नेर्यथार्चिषाम् ॥४९॥
जैसे आग की लपट अथवा दीपक की लौ क्षण-क्षण में उत्पन्न
और नष्ट होती रहती है- उनका यह क्रम निरन्तर चलता रहता है, परन्तु दीखनहीं पड़ता-वैसे ही जल प्रवाहके समान वेगवान् काल के द्वारा क्षण-क्षण में प्राणियों के शरीर की उत्पत्ति और विनाश होता रहता है, परन्तु अज्ञानवश वह दिखायी नहीं पड़ता ॥४९॥
गुणैर्गुणानुपादत्ते यथाकालं विमुञ्चति ।
न तेषु युज्यते योगी गोभिर्गा इव गोपतिः ॥५०॥
राजन्! मैंने सूर्य से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वे अपनी किरणों से पृथ्वी का जल खींचते और समय पर उसे बरसा देते हैं, वैसे ही योगी पुरुष इन्द्रियों के द्वारा समय पर विषयों का ग्रहण करता है और समय आनेपर उनका त्याग-उनका दान भी कर देता है। किसी भी समय उसे इन्द्रिय के किसी भी विषय में आसक्ति नहीं होती ॥५०॥
बुध्यते स्वे न भेदेन व्यक्तिस्थ इव तद्गतः ।
लक्ष्यते स्थूलमतिभिरात्मा चावस्थितोऽर्कवत् ॥५१॥
स्थूलबुद्धि पुरुषों को जल के विभिन्न पात्रों में प्रतिबिम्बित हुआ
सूर्य उन्हीं में प्रविष्ट सा होकर भिन्न-भिन्न दिखायी पड़ता है।
परन्तु इससे स्वरूपतः सूर्य अनेक नहीं हो जाता; वैसे ही चल-अचल उपाधियों के भेदसे ऐसा जान पड़ता है कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा अलग-अलग है। परन्तु जिनको ऐसा मालूम होता है, उनकी बुद्धि मोटी है। असल बात तो यह है कि आत्मा सूर्य के समान एक ही है। स्वरूपतः उसमें कोई भेद नहीं है ॥५१॥
नातिस्नेहः प्रसङ्गो वा कर्तव्यः क्वापि केनचित् ।
कुर्वन् विन्देत सन्तापं कपोत इव दीनधीः ॥५२॥
राजन् ! कहीं किसी के साथ अत्यन्त स्नेह अथवा आसक्ति न करनी चाहिये, अन्यथा उसकी बुद्धि अपना स्वातन्त्र्य खोकर दीन हो जायगी और उसे कबूतर की तरह अत्यन्त क्लेश उठाना पड़ेगा ॥५२॥
कपोतः कश्चनारण्ये कृतनीडो वनस्पतौ ।
कपोत्या भार्यया सार्धमुवास कतिचित् समाः ॥५३॥
राजन् ! किसी जंगल में एक कबूतर रहता था, उसने एक पेड़पर अपना घोंसला बना रखा था । अपनी मादा कबूतरी के साथ वह कई वर्षोंतक उसी घोंसले में रहा॥५३॥
कपोतौ स्नेहगुणितहृदयौ गृहधर्मिणौ ।
दृष्टिं दृष्ट्याङ्गमङ्गेन बुद्धिं बुद्ध्या बबन्धतुः ॥५४॥
उस कबूतर के जोड़े के हृदय में निरन्तर एक-दूसरे के प्रति स्नेह की वृद्धि होती जाती थी। वे गृहस्थधर्म में इतने आसक्त हो गये थे कि उन्होंने एक-दूसरे की दृष्टि-से-दृष्टि, अङ्ग-से-अङ्ग और बुद्धि-से-बुद्धि को बाँध रखा था ॥५४॥
शय्यासनाटनस्थानवार्ताक्रीडाशनादिकम् ।
मिथुनीभूय विस्रब्धौ चेरतुर्वनराजिषु ॥५५॥
उनका एक-दूसरे पर इतना विश्वास हो गया था कि वे निःशङ्क
होकर वहाँ की वृक्षावली में एक साथ सोते, बैठते, घूमते फिरते, ठहरते, बातचीत करते, खेलते और खाते-पीते थे ॥५५॥
यं यं वाञ्छति सा राजंस्तर्पयन्त्यनुकम्पिता ।
तं तं समनयत् कामं कृच्छ्रेणाप्यजितेन्द्रियः ॥५६॥
राजन् ! कबूतरी पर कबूतर का इतना प्रेम था कि वह जो कुछ चाहती, कबूतर बड़े-से-बड़ा कष्ट उठाकर उसकी कामना पूर्ण करता; वह कबूतरी भी अपने कामुक पति की कामनाएँ पूर्ण करती ॥५६॥
कपोती प्रथमं गर्भं गृह्णती काल आगते ।
अण्डानि सुषुवे नीडे स्वपत्युः सन्निधौ सती ॥५७॥
समय आनेपर कबूतरी को पहला गर्भ रहा। उसने अपने पति के पास ही घोंसले में अंडे दिये ॥५७॥
तेषु काले व्यजायन्त रचितावयवा हरेः ।
शक्तिभिर्दुर्विभाव्याभिः कोमलाङ्गतनूरुहाः ॥५८॥
भगवान् की अचिन्त्य शक्ति से समय आनेपर वे अंडे फूट गये और उनमें से हाथ-पैरवाले बच्चे निकल आये। उनका एक-एक अङ्ग और रोएँ अत्यन्त कोमल थे॥५८॥
प्रजाः पुपुषतुः प्रीतौ दम्पती पुत्रवत्सलौ ।
शृण्वन्तौ कूजितं तासां निर्वृतौ कलभाषितैः ॥५९॥
अब उन कबूतर कबूतरी की आँखें अपने बच्चों पर लग गयीं, वे बड़े प्रेम और आनन्द से अपने बच्चों का लालन-पालन, लाड़-प्यार करते और उनकी मीठी बोली, उनकी गुटर-गूँ सुन-सुनकर आनन्दमग्न हो जाते ॥५९॥
तासां पतत्त्रैः सुस्पर्शैः कूजितैर्मुग्धचेष्टितैः ।
प्रत्युद्गमैरदीनानां पितरौ मुदमापतुः ॥६०॥
बच्चे तो सदा-सर्वदा प्रसन्न रहते ही हैं; वे जब अपने सुकुमार पंखों से माँ-बाप का स्पर्श करते, कूजते, भोली-भाली चेष्टाएँ करते और फुदक-फुदककर अपन