स्नेहानुबद्धहृदयावन्योन्यं विष्णुमायया ।
विमोहितौ दीनधियौ शिशून् पुपुषतुः प्रजाः ॥६१॥
राजन्! सच पूछो तो वे कबूतर-कबूतरी भगवान् की माया से मोहित हो रहे थे। उनका हृदय एक-दूसरे के स्नेहबन्धन से बँध रहा था।
वे अपने नन्हें-नन्हें बच्चों के पालन-पोषण में इतने व्यग्र रहते कि उन्हें दीन-दुनिया, लोक-परलोक की याद ही न आती ॥६१॥
एकदा जग्मतुस्तासामन्नार्थं तौ कुटुम्बिनौ ।
परितः कानने तस्मिन्नर्थिनौ चेरतुश्चिरम् ॥६२॥
एक दिन दोनों नर-मादा अपने बच्चों के लिये चारा लाने जंगल में गये हुए थे। क्योंकि अब उनका कुटुम्ब बहुत बढ़ गया था।
वे चारेके लिए चिरकाल तक जंगलमें चारों ओर विचरते रहे॥६२॥
दृष्ट्वा ताँल्लुब्धकः कश्चिद् यदृच्छातो वनेचरः ।
जगृहे जालमातत्य चरतः स्वालयान्तिके ॥६३॥
इधर एक बहेलिया घूमता-घूमता संयोगवश उनके घोंसले की ओर आ निकला। उसने देखा कि घोंसले के आस-पास कबूतर के बच्चे फुदक रहे हैं;
उसने जाल फैलाकर उन्हें पकड़ लिया ॥६३॥
कपोतश्च कपोती च प्रजापोषे सदोत्सुकौ ।
गतौ पोषणमादाय स्वनीडमुपजग्मतुः ॥६४॥
कबूतर-कबूतरी बच्चों को खिलाने-पिलाने के लिये हर समय उत्सुक रहा करते थे। अब वे चारा लेकर अपने घोंसले के पास आये ॥६४॥
कपोती स्वात्मजान् वीक्ष्य बालकाञ्जालसंवृतान् ।
तानभ्यधावत् क्रोशन्ती क्रोशतो भृशदुःखिता ॥६५॥
कबूतरी ने देखा कि उसके नन्हें-नन्हें बच्चे, उसके हृदय के टुकड़े जाल में फँसे हुए हैं और दुःखसे चें-चें कर रहे हैं।
उन्हें ऐसी स्थिति में देखकर कबूतरी के दुःख की सीमा न रही। वह रोती-चिल्लाती उनके पास दौड़ गयी ॥६५॥
सासकृत्स्नेहगुणिता दीनचित्ताजमायया ।
स्वयं चाबध्यत शिचा बद्धान् पश्यन्त्यपस्मृतिः ॥६६॥
भगवान् की मायासे उसका चित्त अत्यन्त दीन-दुःखी हो रहा था। वह उमड़ते हुए स्नेह की रस्सी से जकड़ी हुई थी, अपने बच्चों को जाल में फँसा
देखकर उसे अपने शरीर की भी सुध-बुध न रही। और वह स्वयं ही जाकर जाल में फँस गयी ॥६६॥
कपोतश्चात्मजान् बद्धानात्मनोऽप्यधिकान् प्रियान् ।
भार्यां चात्मसमां दीनो विललापातिदुःखितः ॥६७॥
जब कबूतर ने देखा कि मेरे प्राणों से भी प्यारे बच्चे जाल में फँस गये और मेरी प्राणप्रिया पत्नी भी उसी दशा में पहुँच गयी, तब वह अत्यन्त दुःखित होकर विलाप
करने लगा। सचमुच उस समय उसकी दशा अत्यन्त दयनीय थी ॥६७॥
अहो मे पश्यतापायमल्पपुण्यस्य दुर्मतेः ।
अतृप्तस्याकृतार्थस्य गृहस्त्रैवर्गिको हतः ॥६८॥
‘मैं अभागा हूँ, दुर्मति हूँ। हाय, हाय! मेरा तो सत्यानाश हो गया। देखो, देखो, न मुझे अभी तृप्ति हुई और न मेरी आशाएँ ही पूरी हुईं। तबतक मेरा धर्म,
अर्थ और काम का मूल यह गृहस्थाश्रम ही नष्ट हो गया ॥६८॥
अनुरूपानुकूला च यस्य मे पतिदेवता ।
शून्ये गृहे मां सन्त्यज्य पुत्रैः स्वर्याति साधुभिः ॥६९॥
हाय ! मेरी प्राणप्यारी मुझे ही अपना इष्टदेव समझती थी; मेरी एक-एक बात मानती थी, मेरे इशारे पर नाचती थी, सब तरह से मेरे योग्य थी।
आज वह मुझे सूने घर में छोड़कर हमारे सीधे-सादे निश्छल बच्चों के साथ स्वर्ग सिधार रही है ॥६९॥
सोऽहं शून्ये गृहे दीनो मृतदारो मृतप्रजः ।
जिजीविषे किमर्थं वा विधुरो दुःखजीवितः ॥७०॥
मेरे बच्चे मर गये। मेरी पत्नी जाती रही। मेरा अब संसार में क्या काम है? मुझ दीन का यह विधुर जीवन -बिना गृहिणी का जीवन जलन का -व्यथा का
जीवन है। अब मैं इस सूने घर में किसके लिये जीऊँ? ॥७०॥
तांस्तथैवावृताञ्छिग्भिर्मृत्युग्रस्तान् विचेष्टतः ।
स्वयं च कृपणः शिक्षु पश्यन्नप्यबुधोऽपतत् ॥७१॥
राजन् ! कबूतर के बच्चे जाल में फँसकर तड़फड़ा रहे थे, स्पष्ट दीख रहा था कि वे मौत के पंजे में हैं, परन्तु वह मूर्ख कबूतर यह
सब देखते हुए भी इतना दीन हो रहा था कि स्वयं जान-बूझकर जाल में कूद पड़ा ॥७१॥
तं लब्ध्वा लुब्धकः क्रूरः कपोतं गृहमेधिनम् ।
कपोतकान् कपोतीं च सिद्धार्थः प्रययौ गृहम् ॥७२॥
राजन्! वह बहेलिया बड़ा क्रूर था। गृहस्थाश्रमी कबूतर-कबूतरी और उनके बच्चों के मिल जाने से उसे बड़ी प्रसन्नता हुई; उसने समझा मेरा
काम बनगया और वह उन्हेंलेकर चलता बना॥७२॥
एवं कुटुम्ब्यशान्तात्मा द्वन्द्वारामः पतत्त्रिवत् ।
पुष्णन् कुटुम्बं कृपणः सानुबन्धोऽवसीदति ॥७३॥
जो कुटुम्बी है विषयों और लोगों के सङ्ग-साथ में ही जिसे सुख मिलता है एवं अपने कुटुम्ब के भरण-पोषण में ही जो सारी सुध -बुध भुला बैठा है,
उसे कभी शान्ति नहीं मिल सकती। वह उसी कबूतर के समान अपने कुटुम्ब के साथ कष्ट पात है ॥७३॥
यः प्राप्य मानुषं लोकं मुक्तिद्वारमपावृतम् ।
गृहेषु खगवत् सक्तस्तमारूढच्युतं विदुः ॥७४॥
यह मनुष्य-शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है। इसे पाकर भी जो कबूतर की तरह अपनी घर-गृहस्थी में फँसा हुआ है, वह बहुत ऊँचे तक चढ़कर गिर रहा है
शास्त्र की भाषा में वह 'आरूढ़च्युत' है ॥७४॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कंन्धे सप्तमोऽध्यायः ॥७॥