उद्धवगीता - अध्याय -४
अवधूतोपाख्यान—कूरर से लेकर भृङ्गी तक सात गुरुओं की कथा
ब्राह्मण उवाच
परिग्रहो हि दुःखाय यद् यत्प्रियतमं नृणाम् ।
अनन्तं सुखमाप्नोति तद् विद्वान् यस्त्वकिञ्चनः ॥१॥
अवधूत दत्तात्रेयजी ने कहा— राजन् ! मनुष्यों को जो वस्तुएँ अत्यन्त प्रिय लगती हैं, उन्हें इकट्ठा करना ही उनके दुःख का कारण है।
जो बुद्धिमान् पुरुष यह बात समझकर अकिञ्चन भाव से रहता है— शरीर की तो बात ही अलग, मन से भी किसी वस्तु का संग्रह नहीं करता
उसे अनन्त सुखस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होती है॥१॥
सामिषं कुररं जघुर्बलिनो ये निरामिषाः ।
तदामिषं परित्यज्य स सुखं समविन्दत ॥२॥
एक कुररपक्षी अपनी चोंच में मांस का टुकड़ा लिये हुए था। उस समय दूसरे बलवान् पक्षी, जिनके पास मांस नहीं था,
उससे छीनने के लिये उसे घेरकर चोंचें मारने लगे। जब कुररपक्षी ने अपनी चोंच से मांस का टुकड़ा फेंक दिया, तभी उसे सुख मिला ॥२॥
न मे मानावमानौ स्तो न चिन्ता गेहपुत्रिणाम् ।
आत्मक्रीड आत्मरतिर्विचरामीहरे बालवत् ॥३॥
मुझे मान या अपमान का कोई ध्यान नहीं है और घर एवं परिवारवालों को जो चिन्ता होती वह मुझे नहीं है। मैं अपने आत्मा में ही रमता हूँ और
अपने साथ ही क्रीडा करता हूँ। यह शिक्षा मैंने बालक से ली है। अतः उसी के समान मैं भी मौज से रहता हूँ॥३॥
द्वावेव चिन्तया मुक्तौ परमानन्द आप्लुतौ ।
यो विमुग्धो जडो बालो यो गुणेभ्यः परं गतः ॥४॥
इस जगत् में दो ही प्रकार के व्यक्ति निश्चिन्त और परमानन्द में मग्न रहते हैं—एक तो भोलाभाला निश्चेष्ट नन्हा सा बालक और
दूसरा वह पुरुष जो गुणातीत हो गया हो ॥४॥
क्वचित् कुमारी त्वात्मानं वृणानान् गृहमागतान् ।
स्वयं तानर्हयामास क्वापि यातेषु बन्धुषु ॥५॥
एक बार किसी कुमारी कन्या के घर उसे वरण करने के लिये कई लोग आये हुए थे । उस दिन उसके घर के लोग कहीं बाहर गये हुए थे।
इसलिये उसने स्वयं ही उनका आतिथ्यसत्कार किया ॥५॥
तेषामभ्यवहारार्थं शालीन् रहसि पार्थिव।
अवघ्नन्त्याः प्रकोष्ठस्थाश्चक्रुः शङ्खाः स्वनं महत् ॥६॥
राजन् ! उनको भोजन कराने के लिये वह घर के भीतर एकान्त में धान कूटने लगी । उस समय उसकी कलाई में पड़ी शंखकी चूड़ियाँ जोर-जोर
से बज रही थीं ॥६॥
सा तज्जुगुप्सितं मत्वा महती व्रीडिता ततः ।
बभञ्चैकैकशः शङ्खान् द्वौ द्वौ पाण्योरशेषयत् ॥७॥
इस शब्दको निन्दित समझकर कुमारी को बड़ी लज्जा मालूम हुई और उसने एक-एक करके सब चूड़ियाँ तोड़ डाली और दोनों
हाथों में केवल दो-दो चूड़ियाँ रहने दीं ॥७॥
उभयोरप्यभूद् घोषो ह्यवघ्नन्त्याः स्म शङ्खयोः ।
तत्राप्येकं निरभिददेकस्मान्नाभवद् ध्वनिः ॥८॥
अब वह फिर धान कूटने लगी। परन्तु वे दो-दो चूड़ियाँ भी बजने लगीं, तब उसने एक-एक चूड़ी और तोड़ दी। जब दोनों कलाइयों में केवल एक-एक
चूड़ी रह गयी, तब किसी प्रकार की आवाज नहीं हुई ॥८॥
अन्वशिक्षमिमं तस्या उपदेशमरिन्दम ।
लोकाननुचरन्नेताँल्लोकतत्त्वविवित्सया ॥९॥
वासे बहूनां कलहो भवेद् वार्ता द्वयोरपि ।
एक एव चरेत्तस्मात् कुमार्या इव कङ्कणः ॥१०॥
रिपुदमन ! उस समय लोगों का आचार-विचार निरखने-परखने के लिये इधर-उधर घूमता-घामता मैं भी वहाँ पहुँच गया था। मैंने उससे यह शिक्षा
ग्रहण की कि जब बहुत लोग एक साथ रहते हैं तब कलह होता है और दो आदमी साथ रहते हैं तब भी बातचीत तो होती ही है; इसलिये कुमारी
कन्या की चूड़ी के समान अकेले ही विचरना चाहिये ॥९-१०॥
मन एकत्र संयुज्याज्जितश्वासो जितासनः ।
वैराग्याभ्यासयोगेन ध्रियमाणमतन्द्रितः ॥११॥
राजन् ! मैंने बाण बनाने वाले से यह सीखा है कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य और अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश में कर ले और
फिर बड़ी सावधानी के साथ उसे एक लक्ष्य में लगा दे ॥११॥
यस्मिन् मनो लब्धपदं यदेतच्छनैः शनैर्मुञ्चति कर्मरेणून् ।
सत्त्वेन वृद्धेन रजस्तमश्च विधूयनिर्वाणमुपैत्यनिन्धनम् ॥१२॥
जब परमानन्द स्वरूप परमात्मा में मन स्थिर हो जाता है, तब वह धीरे-धीरे कर्म वासनाओं की धूल को धो बहाता है। सत्त्वगुण की वृद्धि से रजोगुणी और तमोगुणी
वृत्तियों का त्याग करके मन वैसे ही शान्त हो जाता है, जैसे ईंधन के बिना अग्नि ॥१२॥
तदैवमात्मन्यवरुद्धचित्तो न वेद किञ्चिद् बहिरन्तरं वा ।
यथेषुकारो नृपतिं व्रजन्त-मिषौ गतात्मा न ददर्श पार्श्वे ॥१३॥
इस प्रकार जिसका चित्त अपने आत्मा में ही स्थिर -निरुद्ध हो जाता है, उसे बाहर-भीतर कहीं किसी पदार्थ का भान नहीं होता।
मैंने देखा था कि एक बाण बनानेवाला कारीगर बाण बनाने में इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पास से ही दलबल के साथ राजा की सवारी
निकल गयी और उसे पता तक न चला ॥१३॥
एकचार्यनिकेतः स्यादप्रमत्तो गुहाशयः ।
अलक्ष्यमाण आचारैर्मुनिरेकोऽल्पभाषणः ॥१४॥
राजन् ! मैंने साँप से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संन्यासी को सर्प की भाँति अकेले ही विचरण करना चाहिये, उसे मण्डली नहीं बाँधनी चाहिये,
मठ तो बनाना ही नहीं चाहिये। वह एक स्थान में न रहे, प्रमाद न करे, गुहा आदि में पड़ा रहे, बाहरी आचारों से पहचाना न जाय। किसी से
सहायता न ले और बहुत कम बोले ॥१४॥
गृहारम्भोऽतिदुःखाय विफलश्चाध्रुवात्मनः ।
सर्पः परकृतं वेश्म प्रविश्य सुखमेधते ॥१५॥
इस अनित्य शरीर के लिये घर बनाने के बखेड़े में पड़ना व्यर्थ और दुःख की जड़ है। साँप दूसरों के बनाये घर में घुसकर बड़े आराम से
अपना समय काटता है ॥१५॥
एको नारायणो देवः पूर्वसृष्टं स्वमायया ।
संहृत्य कालकलया कल्पान्त इदमीश्वरः ॥१६॥
एक एवाद्वितीयोऽभूदात्माधारोऽखिलाश्रयः ।
कालेनात्मानुभावेन साम्यं नीतासु शक्तिषु ।
सत्त्वादिष्वादिपुरुषः प्रधानपुरुषेश्वरः ॥१७॥
परावराणां परम आस्ते कैवल्यसंज्ञितः ।
केवलानुभवानन्दसन्दोहो निरुपाधिकः ॥१८॥
केवलात्मानुभावेन स्वमायां त्रिगुणात्मिकाम् ।
संक्षोभयन् सृजत्यादौ तया सूत्रमरिन्दम ॥१९॥
तामाहुस्त्रिगुणव्यक्तिं' सृजन्तीं विश्वतोमुखम् ।
यस्मिन् प्रोतमिदं विश्वं येन संसरते पुमान् ॥२०॥
अब मकड़ी से ली हुई शिक्षा सुनो। सबके प्रकाशक और अन्तर्यामी सर्वशक्तिमान् भगवान् ने पूर्वकल्प में बिना किसी अन्य सहायक के
अपनी ही माया से रचे हुए जगत् को कल्प के अन्त में (प्रलयकाल उपस्थित होनेपर) कालशक्ति के द्वारा नष्ट कर दिया—उसे अपने में लीन कर लिया
और सजातीय, विजातीय तथा स्वगत भेद से शून्य अकेले ही शेष रह गये। वे सबके अधिष्ठान हैं, सबके आश्रय हैं; परन्तु स्वयं अपने आश्रय- अपने ही
आधार से रहते हैं, उनका कोई दूसरा आधार नहीं है। वे प्रकृति और परुष दोनों के नियामक, कार्य और कारणात्मक जगत् के आदिकारण परमात्मा
अपनी शक्ति काल के प्रभाव से सत्त्व-रज आदि समस्त शक्तियों को साम्यावस्था में पहुँचा देते हैं और स्वयं कैवल्य रूप से एक और अद्वितीय- रूप से
विराजमान रहते हैं। वे केवल अनुभव स्वरूप और आनन्दघन मात्र हैं। किसी भी प्रकार की उपाधि का उनसे सम्बन्ध नहीं है। वे ही प्रभु केवल अपनी
शक्ति काल के द्वारा अपनी त्रिगुणमयी माया को क्षुब्ध करते हैं और उससे पहले क्रियाशक्ति-प्रधान सूत्र (महत्तत्त्व) की रचना करते हैं। यह सूत्ररूप महत्तत्त्व ही
तीनों गुणों की पहली अभिव्यक्ति है, वही सब प्रकार की सृष्टि का मूल कारण है। उसीमें यह सारा विश्व, सूत में ताने-बाने की तरह ओतप्रोत है और
इसी के कारण जीव को जन्म-मृत्यु के चक्कर में पड़ना पड़ता है॥१६–२०॥
यथोर्णनाभिर्हृदयादूर्णां सन्तत्य वक्त्रतः ।
तया विहृत्य भूयस्तां ग्रसत्येवं महेश्वरः ॥२१॥
जैसे मकड़ी अपने हृदय से मुँह के द्वारा जाला फैलाती है, उसी में विहार करती है और फिर उसे निगल जाती है, वैसे ही परमेश्वर भी
इस जगत् को अपने में से उत्पन्न करते हैं, उसमें जीवरूप से विहार करते हैं और फिर उसे अपने में लीन कर लेते हैं ॥२१॥
यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया ।
स्नेहाद् द्वेषाद् भयाद् वापि याति तत्तत्सरूपताम् ॥२२॥
राजन्! मैंने भृङ्गी (बिलनी) कीड़े से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यदि प्राणी स्नेह से, द्वेष से अथवा भय से भी जान-बूझकर एकाग्र रूप से अपना मन
किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त जाता है ॥२२॥
कीटः पेशस्कृतं ध्यायन् कुड्यां तेन प्रवेशितः ।
याति तत्सात्मतां राजन् पूर्वरूपमसन्त्यजन् ॥२३॥
राजन् ! जैसे भृङ्गी एक कीड़ेको ले जाकर दीवार पर अपने रहने की जगह बंद कर देता है और वह कीडा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने
पहले शरीर का त्याग किये बिना ही उसी शरीर से तद्रूप हो जाता है ॥२३॥
एवं गुरुभ्य एतेभ्य एषा मे शिक्षिता मतिः ।
स्वात्मोपशिक्षितां बुद्धिं शृणु मे वदतः प्रभो ॥२४॥
राजन् ! इस प्रकार मैंने इतने गुरुओंसे ये शिक्षाएँग्रहण कीं । अब मैंने अपने शरीरसे जो कुछ सीखा है, वह तुम्हें बताता हूँ, सावधान होकर सुनो ॥२४॥
देहो गुरुर्मम विरक्तिविवेकहेतुर्बिभ्रत् स्म सत्त्वनिधनं सततार्युदर्कम् ।
तत्त्वान्यनेन विमृशामि यथा तथापि पारक्यमित्यवसितो विचराम्यसङ्गः ॥२५॥
यह शरीर भी मेरा गुरु ही है; क्योंकि यह मुझे विवेक और वैराग्य की शिक्षा देता है। मरना और जीना तो इसके साथ लगा ही रहता है।
इस शरीर को पकड़ रखने का फल यह है कि दुःख-पर-दुःख भोगते जाओ । यद्यपि इस शरीर से तत्त्वविचार करने में सहायता मिलती है,
तथापि मैं इसे अपना कभी नहीं समझता; सर्वदा यही निश्चय रखता हूँ कि एक दिन इसे सियार-कुत्ते खा जायँगे। इसीलिये मैं इससे असङ्ग होकर विचरता हूँ ॥२५॥
जायात्मजार्थपशुभृत्यगृहाप्तवर्गान् पुष्णाति यत्प्रियचिकीर्षुतया वितन्वन् ।
स्वान्ते सकृच्छ्रमवरुद्धधनः स देहः सृष्ट्वास्य बीजमवसीदति वृक्षधर्मा ॥२६॥
जीव जिस शरीर का प्रिय करने के लिये ही अनेकों प्रकार की कामनाएँ और कर्म करता है तथा स्त्री- पुत्र, धन-दौलत, हाथी-घोड़े, नौकर-चाकर,
घर-द्वार और भाई-बन्धुओं का विस्तार करते हुए उनके पालन-पोषण में लगा रहता है। बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ सहकर धनसञ्चय करता है।
आयुष्य पूरी होनेपर वही शरीर स्वयं तो नष्ट होता ही है, वृक्ष के समान दूसरे शरीर के लिये बीज बोकर उसके लिये भी दुःखकी व्यवस्था कर जाता है ॥२६॥
जिह्वैकतोऽमुमपकर्षति कर्हि तर्षा शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित् ।
घ्राणोऽन्यतश्चपलदृक् क्व च कर्मशक्ति- र्बह्वयः सपत्न्य इव गेहपतिं लुनन्ति ॥२७॥
जैसे बहुत-सी सौतें अपने एक पति को अपनी-अपनी ओर खींचती हैं, वैसे ही जीव को जीभ एक ओर – स्वादिष्ट पदार्थों की ओर खींचती है तो प्यास दूसरी
ओर – जल की ओर; जननेन्द्रिय एक ओर - स्त्रीसंभोग की ओर ले जाना चाहती है तो त्वचा, पेट और कान दूसरी ओर – कोमल स्पर्श, भोजन और मधुर
शब्द की ओर खींचने लगते हैं। नाक कहीं सुन्दर गन्ध सूँघने के लिये ले जाना चाहती है तो चञ्चल नेत्र कहीं दूसरी ओर सुन्दर रूप देखने के लिये। इस
प्रकार कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ दोनों ही इसे सताती रहती हैं ॥२७॥
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयाऽऽत्मशक्त्या वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान् ।
तैस्तैरतुष्टहृदयः पुरुषं विधाय ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवः ॥२८॥
वैसे तो भगवान् ने अपनी अचिन्त्य शक्ति माया से वृक्ष, सरीसृप (रेंगनेवाले जन्तु) पशु, पक्षी, डाँस और मछली आदि अनेकों प्रकार की योनियाँ रचीं;
परन्तु उनसे उन्हें सन्तोष न हुआ । तब उन्होंने मनुष्य शरीर की सृष्टि की। यह ऐसी बुद्धि से युक्त है, जो ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकती है।
इसकी रचना करके वे बहुत आनन्दित हुए ॥२८॥
लब्ध्वा सुदुर्लभमिदं बहुसम्भवान्ते मानुष्यमर्थदमनित्यमपीह धीरः ।
तूर्णं यतेत न पतेदनुमृत्यु याव- न्निःश्रेयसाय विषयः खलु सर्वतः स्यात् ॥२९॥
यद्यपि यह मनुष्य शरीर है तो अनित्य ही — मृत्यु सदा इसके पीछे लगी रहती है। परन्तु इससे परमपुरुषार्थ की प्राप्ति हो सकती है; इसलिये
अनेक जन्मों के बाद यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य-शरीर पाकर बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि शीघ्र से शीघ्र, मृत्यु के पहले ही मोक्ष-प्राप्ति का प्रयत्न कर ले।
इस जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष ही है। विषय-भोग तो सभी योनियों में प्राप्त हो सकते हैं, इसलिये उनके संग्रह में यह अमूल्य जीवन नहीं खोना चाहिये ॥२९॥
एवं सञ्जातवैराग्यो विज्ञानालोक आत्मनि ।
विचरामि महीमेतां मुक्तसङ्गोऽनहङ्कृतिः॥३०॥
राजन् ! यही सब सोच-विचार कर मुझे जगत् से वैराग्य हो गया। मेरे हृदय में ज्ञान-विज्ञान की ज्योति जगमगाती रहती है। न तो कहीं मेरी आसक्ति है
और न कहीं अहङ्कार ही। अब मैं स्वच्छन्द रूप से इस पृथ्वी में विचरण करता ॥३०॥
न ह्येकस्माद् गुरोर्ज्ञानं सुस्थिरं स्यात् सुपुष्कलम् ।
ब्रह्मैतदद्वितीयं वै गीयते बहुधर्षिभिः ॥३१॥
राजन् ! अकेले गुरु से ही यथेष्ट और सुदृढ़ बौध नहीं होता, उसके लिये अपनी बुद्धि से भी बहुत कुछ सोचने-समझने की आवश्यकता है।
देखो! ऋषियों ने एक ही अद्वितीय ब्रह्म का अनेकों प्रकार से गान किया है। (यदि तुम स्वयं विचारकर निर्णय न करोगे, तो ब्रह्म के वास्तविक
स्वरूप को कैसे जान सकोगे ? ) ॥३१॥
श्रीभगवानुवाच
इत्युक्त्वा स यदुं विप्रस्तमामन्त्र्य गभीरधीः ।
वन्दितोऽभ्यर्थितो राज्ञा ययौ प्रीतो यथागतम् ॥३२॥
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- प्यारे उद्धव ! गम्भीरबुद्धि अवधूत दत्तात्रेय ने राजा यदु को इस प्रकार उपदेश किया । यदुने उनकी पूजा और वन्दना की,
दत्तात्रेयजी उनसे अनुमति लेकर बड़ी प्रसन्नता से इच्छानुसार पधार गये ॥३२॥
अवधूतवचः श्रुत्वा पूर्वेषां नः स पूर्वजः ।
सर्वसङ्गविनिर्मुक्तः समचित्तो बभूव ह ॥३३॥
हमारे पूर्वजों के भी पूर्वज राजा यदु अवधूत दत्तात्रेय की यह बात सुनकर समस्त आसक्तियों से छुटकारा पा गये और समदर्शी हो गये।
(इसी प्रकार भी समस्त आसक्तियों का परित्याग करके समदर्शी हो जाना चाहिये) ॥३३॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे नवमोऽध्ययः ॥९॥