उद्धवगीता - अध्याय -५
लौकिक तथा पारलौकिक भोगों की असारता का निरूपण
श्रीभगवानुवाच
मयोदितेष्ववहितः स्वधर्मेषु मदाश्रयः ।
वर्णाश्रमकुलाचारमकामात्मा समाचरेत् ॥१॥
साधक को चाहिये कि सब तरह से मेरी शरण में रहकर भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-प्यारे उद्भव ! (गीता पाञ्चरात्र आदि में) मेरे द्वारा उपदिष्ट अपने धर्मो का सावधानी से पालन करे।
साथ ही जहाँतक उनसे विरोध न हो वहाँ तक निष्कामभाव से अपने वर्ण, आश्रम और कुल के अनुसार सदाचार का भी अनुष्ठान करे ॥१॥
अन्वीक्षेत विशुद्धात्मा देहिनां विषयात्मनाम् ।
गुणेषु तत्त्वध्यानेन सर्वारम्भविपर्ययम् ॥२॥
निष्काम होने का उपाय यह है कि स्वधर्मों का पालन करने से शुद्ध हुए अपने चित्त में यह विचार करे कि जगत के विषयी प्राणी शब्द, स्पर्श, रूप आदि विषयों को सत्य समझकर
उनकी प्राप्ति के लिये जो प्रयत्न करते हैं, उसमें उनका उद्देश्य तो यह होता है कि सुख मिले, परन्तु मिलता है दुःख ॥२॥
सुप्तस्य विषयालोको ध्यायतो वा मनोरथः ।
नानात्मकत्वाद् विफलस्तथा भेदात्मधीर्गुणैः ॥३॥
इसके सम्बन्ध में ऐसा विचार करना चाहिये कि स्वप्न अवस्था में और मनोरथ करते समय जाग्रत् अवस्था में भी मनुष्य मन-ही-मन अनेकों प्रकार के विषयों का अनुभव करता है,
परन्तु उसकी वह सारी कल्पना वस्तुशून्य होने के कारण व्यर्थ है। वैसे ही इन्द्रियों के द्वारा होने वाली भेदबुद्धि भी व्यर्थ ही है, क्योंकि यह भी इन्द्रियजन्य
और नाना वस्तुविषयक होने के कारण पूर्ववत् असत्य ही है ॥३॥
निवृत्तं कर्म सेवेत प्रवृत्तं मत्परस्त्यजेत्
जिज्ञासायां संप्रवृत्तो नाद्रियेत् कर्मचोदनाम् ॥४॥
जो पुरुष मेरी शरण में है, उसे अन्तर्मुख करनेवाले निष्काम अथवा नित्यकर्म ही करने चाहिये। उन कर्मों का बिलकुल परित्याग कर देना चाहिये, जो बहिर्मुख बनानेवाले
अथवा सकाम हों। जब आत्मज्ञान की उत्कट इच्छा जाग उठे, तब तो कर्मसम्बन्धी विधि-विधानों का भी आदर नहीं करना चाहिये ॥४॥
यमानभीक्ष्णं सेवेत नियमान् मत्परः क्वचित् ।
मदभिज्ञं गुरुं शान्तमुपासीत मदात्मकम् ॥५॥
अहिंसा आदि यमों का तो आदरपूर्वक सेवन करना चाहिये, परन्तु शौच (पवित्रता) आदि नियमों का पालन शक्ति के अनुसार और आत्मज्ञान के विरोधी न होनेपर ही
करना चाहिये। जिज्ञासु पुरुष के लिये यम और नियमों के पालन से भी बढ़कर आवश्यक बात यह है कि वह अपने गुरु की, जो मेरे स्वरूप को जाननेवाले और शान्त हों,
मेरा ही स्वरूप समझकर सेवा करे ॥५॥
अमान्यमत्सरो दक्षो निर्ममो दृढसौहृदः ।
असत्वरोऽर्थजिज्ञासुरनसूयुरमोघवाक् ॥६॥
शिष्य को अभिमान न करना चाहिये। वह कभी किसी से डाह न करे-किसी का बुरा न सोचे। वह प्रत्येक कार्य में कुशल हो– उसे आलस्य छू न जाय।
उसे कहीं भी ममता न हो, गुरु के चरणों में दृढ़ अनुराग हो। कोई काम हड़बड़ाकर न करे—उसे सावधानी से पूरा करे। सदा परमार्थ के सम्बन्ध
में ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा बनाये रखे। किसी के गुणों में दोष न निकाले और व्यर्थ की बात न करे ॥६॥
जायापत्यगृहक्षेत्रस्वजनद्रविणादिषु
उदासीनः समं पश्यन् सर्वेष्वर्थमिवात्मनः ॥७॥
जिज्ञासु का परम धन है आत्मा; इसलिये वह स्त्री-पुत्र, घर-खेत, स्वजन और धन आदि सम्पूर्ण पदार्थों में एक सम आत्मा को देखे और किसी में कुछ विशेषता का
आरोप करके उससे ममता न करे, उदासीन रहे ॥७॥
विलक्षणः स्थूलसूक्ष्माद् देहादात्मेक्षिता स्वदृक् ।
यथाग्निर्दारुणो दाह्याद् दाहकोऽन्यः प्रकाशकः ॥ ८॥
उद्धव ! जैसे जलने वाली लकड़ी से उसे जलाने और प्रकाशित करनेवाली आग सर्वथा अलग है। ठीक वैसे ही विचार करनेपर जान पड़ता है कि पञ्चभूतोंका बना स्थूलशरीर
और मन-बुद्धि आदि सत्रह तत्त्वों का बना सूक्ष्मशरीर दोनों ही दृश्य और जड हैं। तथा उनको जानने और प्रकाशित करनेवाला आत्मा साक्षी एवं स्वयंप्रकाश है। शरीर अनित्य,
अनेक एवं जड हैं। आत्मा नित्य, एक एवं चेतन है। इस प्रकार देह की अपेक्षा आत्मा में महान् विलक्षणता है। अतएव देह से आत्मा भिन्न है ॥८॥
निरोधोत्पत्त्यणुबृहन्नानात्वं तत्कृतान् गुणान् ।
अन्तःप्रविष्ट आधत्त एवं देहगुणान् परः॥९॥
जब आग लकड़ी में प्रज्वलित होती है, तब लकड़ी के उत्पत्ति-विनाश, बड़ाई-छोटाई और अनेकता आदि सभी गुण वह स्वयं ग्रहण कर लेती है। परन्तु सच पूछो,
तो लकड़ी के उन गुणों से आग का कोई सम्बन्ध नहीं है। वैसे ही जब आत्मा अपने को शरीर मान लेता है, तब वह देह के जडता, अनित्यता, स्थूलता,
अनेकता आदि गुणों से सर्वथा रहित होनेपर भी उनसे युक्त जान पडता है ॥९॥
योऽसौ गुणैर्विरचितो देहोऽयं पुरुषस्य हि ।
संसारस्तन्निबन्धोऽयं पुंसो विद्याच्छिदात्मनः ॥१०॥
ईश्वरके द्वारा नियन्त्रित माया के गुणों ने ही सूक्ष्म और स्थूल शरीर का निर्माण किया है। जीव को शरीर और शरीर को जीव समझ लेने के कारण ही स्थूल शरीर के
जन्म-मरण और सूक्ष्म शरीर के आवागमन का आत्मा पर आरोप किया जाता है। जीव को जन्म - मृत्यु रूप संसार इसी भ्रम अथवा अध्यास के कारण प्राप्त होता है।
आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होने पर उसकी जड़ कट जाती है ॥१०॥
तस्माज्जिज्ञासयाऽऽत्मानमात्मस्थं केवलं परम् ।
सङ्गम्य निरसेदेतद्वस्तुबुद्धिं यथाक्रमम् ॥११॥
प्यारे उद्धव ! इस जन्म-मृत्यु रूप संसार का कोई दूसरा कारण नहीं, केवल अज्ञान ही मूल कारण है। इसलिये अपने वास्तविक स्वरूप को, आत्मा को जानने की
इच्छा करनी चाहिये। अपना यह वास्तविक स्वरूप समस्त प्रकृति और प्राकृत जगत् से अतीत, द्वैत की गन्ध से रहित एवं अपने-आपमें ही स्थित है। उसका और कोई आधार नहीं है।
उसे जानकर धीरे-धीरे स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर आदि में जो सत्यत्व बुद्धि हो रही है, उसे क्रमशः मिटा देना चाहिये ॥११॥
आचार्योऽरणिराद्यः स्यादन्तेवास्युत्तरारणिः ।
तत्सन्धानं प्रवचनं विद्यासन्धिः सुखावहः ॥१२॥
वैशारदी सातिविशुद्धबुद्धि-र्धुनोति मायां गुणसम्प्रसूताम् ।
गुणांच सन्दह्य यदात्ममेतत्स्वयं च शाम्यत्यसमिद् यथाग्निः ॥१३॥
(यज्ञमें जब अरणिमन्थन करके अग्नि उत्पन्न करते हैं, तो उसमें नीचे-ऊपर दो लकड़ियाँ रहती हैं और बीच में मन्थनकाष्ठ रहता है; वैसे ही) विद्यारूप अग्नि की उत्पत्ति के
लिये आचार्य और शिष्य तो नीचे- ऊपर की अरणियाँ हैं तथा उपदेश मन्थनकाष्ठ है। इनसे जो ज्ञानाग्नि प्रज्वलित होती है, वह विलक्षण सुख देनेवाली है। इस यज्ञ में
बुद्धिमान् शिष्य सद्गुरु के द्वारा जो अत्यन्त विशुद्ध ज्ञान प्राप्त करता है, वह गुणों से बनी हुई विषयों की माया को भस्म कर देता है। तत्पश्चात् वे गुण भी भस्म हो जाते हैं,
जिनसे कि यह संसार बना हुआ है। इस प्रकार सबके भस्म हो जानेपर जब आत्मा के अतिरिक्त और कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती, तब वह ज्ञानाग्नि भी ठीक वैसे ही
अपने वास्तविक स्वरूपमें शान्त हो जाती है, जैसे समिधा न रहनेपर आग बुझ जाती है ॥१२-१३॥
अथैषां कर्मकर्तॄणां भोक्तॄणां सुखदुःखयोः ।
नानात्वमथ नित्यत्वं लोककालागमात्मनाम् ॥१४॥
मन्यसे सर्वभावानां संस्था ह्यौत्पत्तिकी यथा ।
तत्तदाकृतिभेदेन जायते भिद्यते च धीः ॥१५॥
एवमप्यङ्ग सर्वेषां देहिनां देहयोगतः ।
कालावयवतः सन्ति भावा जन्मादयोऽसकृत् ॥ १६॥
अत्रापि कर्मणां कर्तुरस्वातन्त्र्यं च लक्ष्यते ।
भोक्तुश्च दुःखसुखयोः को न्वर्थो विवशं भजेत् ॥१७॥
प्यारे उद्धव ! यदि तुम कदाचित् कर्मो के कर्ता और सुख-दुखों के भोक्ता जीवों को अनेक तथा जगत्, काल, वेद और आत्माओं को नित्य मानते हो; साथ ही
समस्त पदार्थों की स्थिति प्रवाह से नित्य और यथार्थ स्वीकार करते हो तथा यह समझते हो कि घट-पट आदि बाह्य आकृतियों के भेद से उनके अनुसार ज्ञान ही उत्पन्न होता
और बदलता रहता है; तो ऐसे मत के मानने से बड़ा अनर्थ हो जायगा। (क्योंकि इस प्रकार जगत्के कर्ता आत्मा की नित्य सत्ता और जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्ति भी सिद्ध न हो सकेगी।) यदि कदाचित् ऐसा स्वीकार भी कर लिया जाय तो देह और संवत्सरादि कालावयवों के सम्बन्ध से होनेवाली जीवों की जन्म-मरण आदि अवस्थाएँ भी नित्य होने के
कारण दूर न हो सकेंगी; क्योंकि तुम देहादि पदार्थ और काल की नित्यता स्वीकार करते हो। इसके सिवा, यहाँ भी कर्मों का कर्ता तथा सुख-दुःख का भोक्ता जीव परतन्त्र ही दिखायी
देता है; यदि वह स्वतन्त्र हो तो दुःख का फल क्यों भोगना चाहेगा ? इस प्रकार सुख-भोग की समस्या सुलझ जानेपर भी दुःख भोग की समस्या तो उलझी ही रहेगी।
अतः इस मत के अनुसार जीव को कभी मुक्ति या स्वतन्त्रता प्राप्त न हो सकेगी । जब जीव स्वरूपतः परतन्त्र है, विवश है, तब तो स्वार्थ या परमार्थ कोई भी उसका सेवन न करेगा।
अर्थात् वह स्वार्थ और परमार्थ दोनों से ही वञ्चित रह जायगा ॥१४–१७॥
न देहिनां सुखं किञ्चिद् विद्यते विदुषामपि ।
तथा च दुःखं मूढानां वृथाहङ्करणं परम् ॥१८॥
(यदि यह कहा जाय कि जो भलीभाँति कर्म करना जानते हैं, वे सुखी रहते हैं, और जो नहीं जानते उन्हें दुःख भोगना पड़ता है तो यह कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि) ऐसा देखा
जाता है कि बड़े-बड़े कर्मकुशल विद्वानों को भी कुछ सुख नहीं मिलता और मूढ़ों का भी कभी दुःख से पाला नहीं पड़ता। इसलिये जो लोग अपनी बुद्धि या कर्म से सुख पाने
का घमंड करते हैं, उनका वह अभिमान व्यर्थ है ॥१८॥
यदि प्राप्तिं विघातं च जानन्ति सुखदुःखयोः ।
तेऽप्यद्धा न विदुर्योगं मृत्युर्न प्रभवेद् यथा ॥१९॥
यदि यह स्वीकार कर लिया जाय कि वे लोग सुख की प्राप्ति और दुःख के नाश का ठीक-ठीक उपाय जानते हैं, तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्हें भी ऐसे उपाय
का पता नहीं है, जिससे मृत्यु उनके ऊपर कोई प्रभाव न डाल सके और वे कभी मरें ही नहीं ॥१९॥
को न्वर्थः सुखयत्येनं कामो वा मृत्युरन्तिके ।
आघातं नीयमानस्य वध्यस्येव न तुष्टिदः ॥२०॥
जब मृत्यु उनके सिर पर नाच रही है, तब ऐसी कौन-सी भोग-सामग्री या भोग-कामना है जो उन्हें सुखी कर सके ? भला, जिस मनुष्य को फाँसी पर लटकाने के लिये वधस्थान
पर ले जाया जा रहा है, उसे क्या फूल-चन्दन-स्त्री आदि पदार्थ सन्तुष्ट कर सकते हैं ? कदापि नहीं। (अतः पूर्वोक्त मत माननेवालोंकी दृष्टि से न सुख ही सिद्ध होगा
और न जीव का कुछ पुरुषार्थ ही रहेगा ) ॥२०॥
श्रुतं च दृष्टवद् दुष्टं स्पर्धासूयात्ययव्ययैः ।
बह्वन्तरायकामत्वात् कृषिवच्चापि निष्फलम् ॥२१॥
प्यारे उद्धव ! लौकिक सुखके समान पारलौकिक सुख भी दोषयुक्त ही है; क्योंकि वहाँ भी बराबरी वालों से होड़ चलती है, अधिक सुख भोगने वालों के प्रति असूया होती है—उनके
गुणोंमें दोष निकाला जाता है और छोटों से घृणा होती है। प्रतिदिन पुण्य क्षीण होनेके साथ ही वहाँ के सुख भी क्षय के निकट पहुँचते रहते हैं और एक दिन नष्ट हो जाते हैं। वहाँ की
कामना पूर्ण होने में भी यजमान, ऋत्विज् और कर्म आदि की त्रुटियों के कारण बड़े-बड़े विघ्नों की सम्भावना रहती है। जैसे हरी-भरी खेती भी अतिवृष्टि- अनावृष्टि आदि के कारण
नष्ट हो जाती है, वैसे ही स्वर्ग भी प्राप्त होते-होते विघ्नोंके कारण नहीं मिल पाता ॥२१॥
अन्तरायैरविहतो यदि धर्मः स्वनुष्ठितः ।
तेनापि निर्जितं स्थानं यथा गच्छति तच्छृणु ॥२२॥
यदि यज्ञ-यागादि धर्म बिना किसी विघ्न के पूरा हो जाय, तो उसके द्वारा जो स्वर्गादि लोक मिलते हैं, उनकी प्राप्ति का प्रकार मैं बतलाता हूँ, सुनो ॥२२॥
इष्ट्वेह देवता यज्ञैः स्वर्लोकं याति याज्ञिकः ।
भुञ्जीत देववत्तत्र भोगान् दिव्यान् निजार्जितान् ॥२३॥
यज्ञ करने वाला पुरुष यज्ञों के द्वारा देवताओं की आराधना करके स्वर्ग में जाता है और वहाँ अपने पुण्यकर्मो के द्वारा उपार्जित दिव्य भोगों को देवताओं के समान भोगता है ॥२३॥
स्वपुण्योपचिते शुभ्रे विमान उपगीयते ।
गन्धर्वैर्विहरन् मध्ये देवीनां हृद्यवेषधृक् ॥२४॥
उसे उसके पुण्यों के अनुसार एक चमकीला विमान मिलता है और वह उसपर सवार होकर सुर-सुन्दरियों के साथ विहार करता है। गन्धर्वगण उसके गुणों का गान करते हैं और
उसके रूप-लावण्य को देखकर दूसरों का मन लुभा जाता है ॥२४॥
स्त्रीभिः कामगयानेन किङ्किणीजालमालिना ।
क्रीडन् न वेदात्मपातं सुराक्रीडेषु निर्वृतः ॥२५॥
उसका विमान वह जहाँ ले जाना चाहता है, वहीं चला जाता है और उसकी घंटियाँ घनघनाकर दिशाओं को गुञ्जारित करती हैं। वह अप्सराओं के साथ नन्दनवन आदि देवताओं की
विहार-स्थलियों में क्रीड़ाएँ करते-करते इतना बेसुध हो जाता है कि उसे इस बात का पता ही नहीं चलता कि अब मेरे पुण्य समाप्त हो जायँगे और मैं यहाँ से ढकेल दिया जाऊँगा ॥२५॥
तावत् प्रमोदते स्वर्गे यावत् पुण्यं समाप्यते ।
क्षीणपुण्यः पतत्यर्वागनिच्छन् कालचालितः ॥२६॥
जब तक उसके पुण्य शेष रहते हैं, तब तक वह स्वर्ग में चैन की वंशी बजाता रहता है; परन्तु पुण्य क्षीण होते ही इच्छा न रहनेपर भी उसे नीचे गिरना पड़ता है, क्योंकि काल
की चाल ही ऐसी है ॥२६॥
यद्यधर्मरतः सङ्गादसतां वाजितेन्द्रियः ।
कामात्मा कृपणो लुब्धः स्त्रैणो भूतविहिंसकः ॥२७॥
पशूनविधिनाऽऽलभ्य प्रेतभूतगणान् यजन् ।
नरकानवशो जन्तुर्गत्वा यात्युल्बणं तमः ॥२८॥
यदि कोई मनुष्य दुष्टों की संगति में पड़कर अधर्मपरायण हो जाय, अपनी इन्द्रियों के वश में होकर मनमानी करने लगे, लोभवश दाने-दाने में कृपणता करने लगे, लम्पट हो
जाय अथवा प्राणियों को सताने लगे और विधि-विरुद्ध पशुओं की बलि देकर भूत और प्रेतों की, उपासना में लग जाय, तब तो वह पशुओं से भी गया-बीता हो जाता है और
अवश्य ही नरक में जाता है। उसे अन्त में घोर अन्धकार, स्वार्थ और परमार्थ से रहित अज्ञान में ही भटकना पड़ता है ॥२७-२८॥
कर्माणि दुःखोदर्काणि कुर्वन् देहेन तैः पुनः ।
देहमाभजते तत्र किं सुखं मर्त्यधर्मिणः ॥२९॥
जितने भी सकाम और, बहिर्मुख करने वाले कर्म हैं, उनका फल दुःख ही है। जो जीव शरीर में अहंता-ममता करके उन्हींमें लग जाता है। उसे बार-बार जन्म पर जन्म और
मृत्यु-पर-मृत्य प्राप्त होती रहती है। ऐसी स्थिति में मृत्युधर्मा जीव को क्या सुख हो सकता है ? ॥२९॥
लोकानां लोकपालानां मद्भयं कल्पजीविनाम् ।
ब्रह्मणोऽपि भयं मत्तो द्विपरार्धपरायुषः ॥३०॥
सारे लोक और लोकपालों की आयु भी केवल एक कल्प है, इसलिये मुझसे भयभीत रहते हैं। औरों की तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मा भी मुझसे भयभीत रहते हैं; क्योंकि
उनकी आयु भी काल से सीमित – केवल दो परार्द्ध है ॥३०॥
गुणाः सृजन्ति कर्माणि गुणोऽनुसृजते गुणान् ।
जीवस्तु गुणसंयुक्तो भुङ्क्ते कर्मफलान्यसौ ॥३१॥
सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण इन्द्रियों को उनके कर्मों में प्रेरित करते हैं और इन्द्रियाँ कर्म करती हैं। जीव अज्ञानवश सत्त्व, रज आदि गुणों और इन्द्रियों को अपना स्वरूप मान
बैठता है और उनके किये हुए कर्मों का फल सुख-दुःख भोगने लगता है ॥३१॥
यावत् स्याद् गुणवैषम्यं तावन्नानात्वमात्मनः ।
नानात्वमात्मनो यावत् पारतन्त्र्यं तदैव हि ॥३२॥
जबतक गुणों की विषमता है अर्थात् शरीरादि में मैं और मेरेपन का अभिमान है; तभीतक आत्मा के एकत्व की अनुभूति नहीं होती—वह अनेक जान पड़ता है; और जबतक
आत्मा की अनेकता है, तबतक तो उन्हें काल अथवा कर्म किसी के अधीन रहना ही पड़ेगा ॥३२॥
यावदस्यास्वतन्त्रत्वं तावदीश्वरतो भयम् ।
य एतत् समुपासीरंस्ते मुह्यन्ति शुचार्पिताः ॥३३॥
जबतक परतन्त्रता है, तबतक ईश्वर से भय बना ही रहता है। जो मैं और मेरेपन के भाव से ग्रस्त रहकर आत्मा की अनेकता, परतन्त्रता आदि मानते हैं और वैराग्य न ग्रहण करके
बहिर्मुख करने वाले कर्मों का ही सेवन करते रहते हैं, उन्हें शोक और मोह की प्राप्ति होती है ॥३३॥
काल आत्माऽऽगमो लोकः स्वभावो धर्म एव च ।
इति मां बहुधा प्राहुर्गुणव्यतिकरे सति ॥३४॥
प्यारे उद्धव ! जब माया के गुणों में क्षोभ होता है, तब मुझ आत्मा को ही काल, जीव, वेद, लोक, स्वभाव और धर्म आदि अनेक नामों से निरूपण करने लगते हैं।
(ये सब मायामय हैं। वास्तविक सत्य मैं आत्मा ही हूँ) ॥३४॥
उद्धव उवाच
गुणेषु वर्तमानोऽपि देहजेष्वनपावृतः ।
गुणैर्न बद्ध्यते देही बद्ध्यते वा कथं विभो ॥३५॥
उद्धवजी ने पूछा- भगवन्! यह जीव देह आदि रूप गुणों में ही रह रहा है। फिर देह से होने वाले कर्मों या सुख-दुःख आदि रूप फलों में क्यों नहीं बँधता है ? अथवा यह आत्मा
गुणों से निर्लिप्त है, देह आदि के सम्पर्क से सर्वथा रहित है, फिर इसे बन्धन की प्राप्ति कैसे होती है ? ॥३५॥
कथं वर्तेत विहरेत् कैर्वा ज्ञायेत लक्षणैः ।
किं भुञ्जीतोत विसृजेच्छयीतासीत याति वा ॥३६॥
बद्ध अथवा मुक्त पुरुष कैसा बर्ताव करता है, वह कैसे विहार करता है, या वह किन लक्षणों से पहचाना जाता है, कैसे भोजन करता है ? और मल-त्याग
आदि कैसे करता है ? कैसे सोता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है ? ॥३६॥
एतदच्युत मे ब्रूहि प्रश्नं प्रश्नविदां वर ।
नित्यमुक्तो नित्यबद्ध एक एवेति मे भ्रमः ॥३७॥
अच्युत ! प्रश्न का मर्म जानने वालों में आप श्रेष्ठ हैं। इसलिये आप मेरे इस प्रश्न का उत्तर दीजिये – एक ही आत्मा अनादि गुणों के संसर्ग से नित्यबद्ध भी मालूम पड़ता है और
असङ्ग होनेके कारण नित्यमुक्त भी। इस बात को लेकर मुझे भ्रम हो रहा है ॥३७॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां सहितायामेकादशस्कन्धे भगवदुद्धवसंवादे दशमोऽध्यायः ॥१०॥