उद्धवगीता - अध्याय -६
बद्ध, मुक्त और भक्तजनों के लक्षण
श्रीभगवानुवाच
बद्धो मुक्त इति व्याख्या गुणतो मे न वस्तुतः ।
गुणस्य मायामूलत्वान्न मे मोक्षो न बन्धनम् ॥१॥
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- प्यारे उद्धव ! आत्मा बद्ध है या मुक्त है, इस प्रकार की व्याख्या या व्यवहार मेरे अधीन रहनेवाले सत्त्वादि गुणों की उपाधि से ही होता है।
वस्तुतः -- तत्त्वदृष्टि से नहीं। सभी गुण मायामूलक हैं- इन्द्रजाल हैं- जादू के खेल के समान हैं। इसलिये न मेरा मोक्ष है, न तो मेरा बन्धन ही है ॥१॥
शोकमोहौ सुखं दुःखं देहापत्तिश्च मायया ।
स्वप्नो यथाऽऽत्मनः ख्यातिः संसृतिर्न तु वास्तवी ॥२॥
जैसे स्वप्न बुद्धि का विवर्त है— उसमें बिना हुए ही भासता है-मिथ्या है, वैसे ही शोक-मोह, सुख-दुःख, शरीर की उत्पत्ति औरमृत्यु- यह सब संसार का बखेड़ा माया (अविद्या)
के कारण प्रतीत होने पर भी वास्तविक नहीं है ॥२॥
विद्याविद्ये मम तनू विद्ध्युद्धव शरीरिणाम् ।
मोक्षबन्धकरी आद्ये मायया मे विनिर्मिते ॥३॥
उद्धव ! शरीर धारियों को मुक्ति का अनुभव कराने वाली आत्मविद्या और बन्धन का अनुभव कराने वाली अविद्या- ये दोनों ही मेरी अनादि शक्तियाँ हैं।
मेरी माया से ही इनकी रचना हुई है। इनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है ॥३॥
एकस्यैव ममांशस्य जीवस्यैव महामते ।
बन्धोऽस्याविद्ययानादिर्विद्यया च तथेतरः ॥४॥
भाई ! तुम तो स्वयं बड़े बुद्धिमान् हो, विचार करो — जीव तो एक ही है। वह व्यवहार के लिये ही मेरे अंश के रूप में कल्पित हुआ है, वस्तुतः मेरा स्वरूप ही है।
आत्मज्ञान से सम्पन्न होनेपर उसे मुक्त कहते हैं और आत्मा का ज्ञान न होने से बद्ध। और यह अज्ञान अनादि होने से बन्धन भी अनादि कहलाता है ॥४॥
अथ बद्धस्य मुक्तस्य वैलक्षण्यं वदामि ते।
विरुद्धधर्मिणोस्तात स्थितयोरेकधर्मिणि ॥५॥
इस प्रकार मुझ एक ही धर्मी में रहनेपर भी जो शोक और आनन्द रूप विरुद्ध धर्म वाले जान पड़ते हैं, उन बद्ध और मुक्त जीव का भेद मैं बतलाता हूँ ॥५॥
सुपर्णावेतौ सदृशौ सखायौ यदृच्छयैतौ कृतनीडौ च वृक्षे ।
एकस्तयोः खादति पिप्पलान्न- मन्यो निरन्नोऽपि बलेन भूयान ॥६॥
(वह भेद दो प्रकार का है – एक तो नित्यमुक्त ईश्वर से जीव का भेद, और दूसरा मुक्त-बद्ध जीव का भेद। पहला सुनो) – जीव और ईश्वर बद्ध और मुक्त के
भेद से भिन्न-भिन्न होने पर भी एक ही शरीर में नियन्ता और नियन्त्रित के रूप से स्थित हैं। ऐसा समझो कि शरीर एक वृक्ष है, इसमें हृदय का घोंसला बनाकर जीव
और ईश्वर नाम के दो पक्षी रहते हैं। वे दोनों चेतन होने के कारण समान हैं और कभी न बिछुड़ने के कारण सखा हैं। इनके निवास करने का कारण केवल लीला ही है।
इतनी समानता होने पर भी जीव तो शरीर रूप वृक्ष के फल सुख-दुःख आदि भोगता है, परन्तु ईश्वर उन्हें न भोगकर कर्मफल सुख-दुःख आदि से
असङ्ग और उनका साक्षीमात्र रहता है। अभोक्ता होनेपर भी ईश्वर की यह विलक्षणता है कि वह ज्ञान, ऐश्वर्य, आनन्द और सामर्थ्य आदि में भोक्ता जीव से बढ़कर है ॥६॥
आत्मानमन्यं च स वेद विद्वा- नपिप्पलादो न तु पिप्पलादः ।
योऽविद्यया युक् स तु नित्यबद्धो विद्यामयो यः स तु नित्यमुक्तः ॥७॥
साथ ही एक यह भी विलक्षणता है कि अभोक्ता ईश्वर तो अपने वास्तविक स्वरूप और इसके अतिरिक्त जगत् को भी जानता है, परन्तु भोक्ता जीव न अपने वास्तविक
रूप को जानता है और न अपने से अतिरिक्त को ! इन दोनों में जीव तो अविद्या से युक्त होने के कारण नित्यबद्ध है और ईश्वर विद्यास्वरूप होने के कारण नित्यमुक्त है ॥७॥
देहस्थोऽपि न देहस्थो विद्वान् स्वप्नाद् यथोत्थितः ।
अदेहस्थोऽपि देहस्थः कुमतिः स्वप्नदृग् यथा ॥८॥
प्यारे उद्धव ! ज्ञानसम्पन्न पुरुष भी मुक्त ही है; जैसे स्वप्न टूट जाने पर जगा हुआ पुरुष स्वप्न के स्मर्यमाण शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं रखता, वैसे ही ज्ञानी पुरुष सूक्ष्म
और स्थूल- शरीर में रहने पर भी उनसे किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता, परन्तु अज्ञानी पुरुष वास्तव में शरीर से कोई सम्बन्ध न रखने पर भी अज्ञान के कारण शरीर में
ही स्थित रहता है, जैसे स्वप्न देखने वाला पुरुष स्वप्न देखते समय स्वाप्निक शरीर में बँध जाता है ॥८॥
इन्द्रियैरिन्द्रियार्थेषु गुणैरपि गुणेषु च ।
गृह्यमाणेष्वहंकुर्यान्न विद्वान् यस्त्वविक्रियः ॥९॥
व्यवहारादि में इन्द्रियाँ शब्द-स्पर्शादि विषयों को ग्रहण करती हैं; क्योंकि यह तो नियम ही है कि गुण ही गुण को ग्रहण करते हैं, आत्मा नहीं। इसलिये जिसने अपने निर्विकार
आत्म स्वरूप को समझ लिया है, वह उन विषयों के ग्रहण-त्याग में किसी प्रकार का अभिमान नहीं करता ॥९॥
दैवाधीने शरीरेऽस्मिन् गुणभाव्येन कर्मणा ।
वर्तमानोऽबुधस्तत्र कर्तास्मीति निबद्ध्यते ॥१०॥
यह शरीर प्रारब्ध के अधीन है। इससे शारीरिक और मानसिक जितने भी कर्म होते हैं, सब गुणों की प्रेरणा से ही होते हैं । अज्ञानी पुरुष झूठमूठ अपने को उन ग्रहण-त्याग
आदि कर्मों का कर्ता मान बैठता है और इसी अभिमान के कारण वह बँध जाता है ॥१०॥
एवं विरक्तः शयने आसनाटनमज्जने ।
दर्शनस्पर्शनघ्राणभोजनश्रवणादिषु ॥११॥
न तथा बद्ध्यते विद्वांस्तत्र तत्रादयन् गुणान् ।
प्रकृतिस्थोऽप्यसंसक्तो यथा खं सवितानिलः ॥१२॥
वैशारद्येक्षयासङ्गशितया छिन्नसंशयः ।
प्रतिबुद्ध इव स्वप्नान्नानात्वाद् विनिवर्तते ॥१३॥
प्यारे उद्धव ! पूर्वोक्त पद्धति से विचार करके विवेकी पुरुष समस्त विषयों से विरक्त रहता है और सोने-बैठने, घूमने-फिरने, नहाने, देखने, छूने, सूँघने, खाने और सुनने
आदि क्रियाओं में अपने को कर्ता नहीं मानता, बल्कि गुणों को ही कर्ता मानता है। गुण ही सभी कर्मों के कर्ता-भोक्ता हैं—ऐसा जानकर विद्वान् पुरुष कर्मवासना और
फलों से नहीं बँधते । वे प्रकृति में रहकर भी वैसे ही असङ्ग रहते हैं, जैसे स्पर्श आदि से आकाश, जल की आर्द्रता आदि से सूर्य और गन्ध आदि से वायु। उनकी विमल
बुद्धि की तलवार असङ्ग-भावना की सान से और भी तीखी हो जाती है, और वे उससे अपने सारे संशय-सन्देहों को काट कूट कर फेंक देते हैं। जैसे कोई स्वप्र से जाग
उठा हो, उसी प्रकार वे इस भेदबुद्धि के भ्रम से मुक्त हो जाते हैं ॥११-१३॥
यस्य स्युर्वीतसङ्कल्पाः प्राणेन्द्रियमनोधियाम् ।
वृत्तयः स विनिर्मुक्तो देहस्थोऽपि हि तद्गुणैः ॥१४॥
जिनके प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि की समस्त चेष्टाएँ बिना सङ्कल्प के होती हैं, वे देह में स्थित रहकर भी उसके गुणों से मुक्त हैं ॥१४॥
यस्यात्मा हिंस्यते हिंस्त्रैर्येन किञ्चिद् यदृच्छया ।
अर्च्यते वा क्वचित्तत्र न व्यतिक्रियते बुधः ॥१५॥
उन तत्त्वज्ञ मुक्त पुरुषों के शरीर को चाहे हिंसक लोग पीड़ा पहँचायें और चाहे कभी कोई दैवयोग से पूजा करने लगे—वे न तो किसी के सताने से दुःखी होते हैं और
न पूजा करने से सुखी ॥१५॥
न स्तुवीत न निन्देत कुर्वतः साध्वसाधु वा ।
वदतो गुणदोषाभ्यां वर्जितः समदृङ्मुनिः ॥१६॥
जो समदर्शी महात्मा गुण और दोष की भेददृष्टि से ऊपर उठ गये हैं, वे न तो अच्छे काम करने वाले की स्तुति करते हैं और न बुरे काम करने वाले की निन्दा; न वे किसी की
अच्छी बात सुनकर उसकी सराहना करते हैं और न बुरी बात सुनकर किसी को झिड़कते ही हैं ॥१६॥
न कुर्यान्न वदेत् किञ्चिन्न ध्यायेत् साध्वसाधु वा ।
आत्मारामोऽनया वृत्त्या विचरेज्जडवन्मुनिः ॥१७॥
जीवन्मुक्त पुरुष न तो कुछ भला या बुरा काम करते हैं, न कुछ भला या बुरा कहते हैं और न सोचते ही हैं। वे व्यवहार में अपनी समान वृत्ति रखकर आत्मानन्द में ही
मग्न रहते हैं और जड के समान मानो कोई मूर्ख हो इस प्रकार विचरण करते रहते हैं ॥१७॥
शब्दब्रह्मणि निष्णातो न निष्णायात् परे यदि ।
श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षतः ॥१८॥
प्यारे उद्धव ! जो पुरुष वेदों का तो पारगामी विद्वान् हो, परन्तु परब्रह्म के ज्ञान से शून्य हो, उसके परिश्रम का कोई फल नहीं है वह तो वैसा ही है, जैसे बिना दूध की गाय का
पालनेवाला ॥१८॥
गां दुग्धदोहामसतीं च भार्यां देहं पराधीनमसत्प्रजां च ।
वित्तं त्वतीर्थीकृतमङ्ग वाचं हीनां मया रक्षति दुःखदुःखी ॥१९॥
दूध न देनेवाली गाय, व्यभिचारिणी स्त्री, पराधीन शरीर, दुष्ट पुत्र, सत्पात्र के प्राप्त होनेपर भी दान न किया हुआ धन और मेरे गुणों से रहित वाणी व्यर्थ है।
इन वस्तुओं की रखवाली करने वाला दुःख-पर-दुःख ही भोगता रहता है ॥१९॥
यस्यां न मे पावनमङ्ग कर्म स्थित्युद्भवप्राणनिरोधमस्य
लीलावतारेप्सितजन्म वा स्याद् वन्ध्यां गिरं तां बिभृयान्न धीरः ॥२०॥
इसलिये उद्धव ! जिस वाणी में जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयरूप मेरी लोक-पावन लीला का वर्णन न हो और लीलावतारों में भी मेरे लोकप्रिय राम-कृष्णादि अवतारों
का जिसमें यशोगान न हो, वह वाणी वन्ध्या है। बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि ऐसी वाणी का उच्चारण एवं श्रवण न करे ॥२०॥
एवं जिज्ञासयापोह्य नानात्वभ्रममात्मनि ।
उपारमेत विरजं मनो मय्यर्प्य सर्वगे ॥२१॥
प्रिय उद्धव ! जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है, आत्मजिज्ञासा और विचार के द्वारा आत्मा में जो अनेकता का भ्रम है उसे दूर कर दे और मुझ सर्वव्यापी परमात्मा में अपना
निर्मल मन लगा दे तथा संसार के व्यवहारों से उपराम हो जाय ॥२१॥
यद्यनीशो धारयितुं मनो ब्रह्मणि निश्चलम् ।
मयि सर्वाणि कर्माणि निरपेक्षः समाचर ॥२२॥
यदि तुम अपना मन परब्रह्ममें स्थिर न कर सको, तो सारे कर्म निरपेक्ष होकर मेरे लिये ही करो ॥२२॥
श्रद्धालु कथाः शृण्वन् सुभद्रा लोकपावनीः ।
गायन्ननुस्मरन् कर्म जन्म चाभिनयन् मुहुः ॥२३॥
मेरी कथाएँ समस्त लोकों को पवित्र करनेवाली एवं कल्याण स्वरूपिणी हैं। श्रद्धा के साथ उन्हें सुनना चाहिये। बार-बार मेरे अवतार और लीलाओं का गान, स्मरण और
अभिनय करना चाहिये ॥२३॥
मदर्थे धर्मकामार्थानाचरन् मदपाश्रयः ।
लभते निश्चलां भक्तिं मय्युद्धव सनातने ॥२४॥
मेरे आश्रित रहकर मेरे ही लिये धर्म, काम और अर्थ का सेवन करना चाहिये। प्रिय उद्धव ! जो ऐसा करता है, उसे मुझ अविनाशी पुरुष के प्रति अनन्य प्रेममयी
भक्ति प्राप्त हो जाती है ॥२४॥
सत्सङ्गलब्धया भक्त्या मयि मांस उपासिता ।
स वै मे दर्शितं सद्भिरञ्जसा विन्दते पदम् ॥२५॥
भक्ति की प्राप्ति सत्सङ्ग से होती है; जिसे भक्ति प्राप्त हो जाती है, वह मेरी उपासना करता है, मेरे सान्निध्य का अनुभव करता है। इस प्रकार जब उसका
अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, तब वह संतों के उपदेशों के अनुसार उनके द्वारा बताये हुए मेरे परमपद को -वास्तविक स्वरूप को सहज ही में प्राप्त हो जाता है ॥२५॥
उद्धव उवाच
साधुस्तवोत्तमश्लोक मतः कीदृग्विधः प्रभो ।
भक्तिस्त्वय्युपयुज्येत कीदृशी सद्भिरादृता ॥२६॥
उद्धवजी ने पूछा- भगवन्! बड़े-बड़े संत आपकी कीर्ति का गान करते हैं। आप कृपया बतलाइये कि आपके विचार से संत पुरुष का क्या लक्षण है ?
आपके प्रति कैसी भक्ति करनी चाहिये, जिसका संतलोग आदर करते हैं ? ॥२६॥
एतन्मे पुरुषाध्यक्ष लोकाध्यक्ष जगत्प्रभो ।
प्रणतायानुरक्ताय प्रपन्नाय च कथ्यताम् ॥२७॥
भगवन् ! आप ही ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता, सत्यादि लोक और चराचर जगत् के स्वामी हैं। मैं आपका विनीत, प्रेमी और शरणागत भक्त हूँ। आप मुझे भक्ति और
भक्त का रहस्य बतलाइये ॥२७॥
त्वं ब्रह्म परमं व्योम पुरुषः प्रकृतेः परः ।
अवतीर्णोऽसि भगवन् स्वेच्छोपात्तपृथग्वपुः ॥२८॥
भगवन् ! मैं जानता हूँ कि आप प्रकृति से परे पुरुषोत्तम एवं चिदाकाश स्वरूप ब्रह्म हैं। आपसे भिन्न कुछ भी नहीं है; फिर भी आपने लीला के लिये स्वेच्छा
से ही यह अलग शरीर धारण करके अवतार लिया है। इसलिये वास्तव में आप ही भक्ति और भक्त का रहस्य बतला सकते हैं ॥२८॥
श्रीभगवानुवाच
कृपालुरकृतद्रोहस्तितिक्षुः सर्वदेहिनाम् ।
सत्यसारोऽनवद्यात्मा समः सर्वोपकारकः ॥२९॥
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- प्यारे उद्धव ! मेरा भक्त कृपा की मूर्ति होता है । वह किसी भी प्राणी से वैर भाव नहीं रखता और घोर से घोर दुःख भी प्रसन्नता पूर्वक सहता है।
उसके जीवन का सार है सत्य, और उसके मन में किसी प्रकार की पापवासना कभी नहीं आती। वह समदर्शी और सबका भला करनेवाला होता है ॥२९॥
कामैरहतधीर्दान्तो मृदुः शुचिरकिञ्चनः ।
अनीहो मितभुक् शान्तः स्थिरो मच्छरणो मुनिः ॥३०॥
उसकी बुद्धि कामनाओंसे कलुषित नहीं होती। वह संयमी, मधुर स्वभाव और पवित्र होता है। संग्रह-परिग्रह से सर्वथा दूर रहता है। किसी भी वस्तु के लिये वह कोई चेष्टा नहीं करता।
परिमित भोजन करता है और शान्त रहता है। उसकी बुद्धि स्थिर होती है। उसे केवल मेरा ही भरोसा होता है और वह आत्मतत्त्व के चिन्तन में सदा संलग्न रहता है ॥३०॥
अप्रमत्तो गभीरात्मा धृतिमाञ्जितषड्गुणः ।
अमानी मानदः कल्पो मैत्रः कारुणिकः कविः ॥३१॥
वह प्रमाद रहित, गम्भीर स्वभाव और धैर्यवान् होता है। भूख-प्यास, शोक-मोह और जन्म-मृत्यु-ये छहों उसके वश में रहते हैं। वह स्वयं तो कभी किसी से किसी प्रका रका
सम्मान नहीं चाहता, परन्तु दूसरों का सम्मान करता रहता है। मेरे सम्बन्ध की बातें दूसरों को समझाने में बड़ा निपुण होता है और सभी के साथ मित्रता का व्यवहार करता है।
उसके हृदयमें करुणा भरी होती है। मेरे तत्त्वत्का उसे यथार्थ ज्ञान होता है ॥३१॥
आज्ञायैवं गुणान् दोषान् मयाऽऽदिष्टानपि स्वकान् ।
धर्मान् सन्त्यज्य यः सर्वान् मां भजेत स सत्तमः ॥३२॥
प्रिय उद्धव ! मैंने वेदों और शास्त्रों के रूप में मनुष्यों के धर्म का उपदेश किया है, उनके पालन से अन्तःकरण शुद्धि आदि गुण और उल्लङ्घन से नरकादि
दुःख प्राप्त होते हैं; परन्तु मेरा जो भक्त उन्हें भी अपने ध्यान आदि में विक्षेप समझकर त्याग देता है और केवल मेरे ही भजन में लगा रहता है, वह परम संत है ॥३२॥
ज्ञात्वाज्ञात्वाथ ये वै मां यावान् यश्चास्मि यादृशः ।
भजन्त्यनन्यभावेन ते मे भक्ततमा मताः ॥३३॥
मैं कौन हूँ, कितना बड़ा हूँ, कैसा हूँ-इन बातों को जाने, चाहे न जाने; किन्तु जो अनन्य भाव से मेरा भजन करते हैं, वे मेरे विचार से मेरे परम भक्त हैं ॥३३॥
मल्लिङ्गमद्भक्तजनदर्शनस्पर्शनार्चनम् ।
परिचर्या स्तुतिः प्रह्वगुणकर्मानुकीर्तनम् ॥३४॥
प्यारे उद्धव ! मेरी मूर्ति और मेरे भक्तजनोंका दर्शन, स्पर्श, पूजा, सेवा-शुश्रूषा, स्तुति और प्रणाम करे तथा मेरे गुण और कर्मोंका कीर्तन करे ||३४॥
मत्कथाश्रवणे श्रद्धा मदनुध्यानमुद्धव ।
सर्वलाभोपहरणं दास्येनात्मनिवेदनम् ॥३५॥
उद्धव ! मेरी कथा सुनने में श्रद्धा रखे और निरन्तर मेरा ध्यान करता रहे। जो कुछ मिले, वह मुझे समर्पित कर दे और दास्य भाव से मुझे आत्मनिवेदन करे ॥३५॥
मज्जन्मकर्मकथनं मम पर्वानुमोदनम् ।
गीतताण्डववादित्रगोष्ठीभिर्मद्गृहोत्सवः ॥३६॥
मेरे दिव्य जन्म और कर्मों की चर्चा करे। जन्माष्टमी, रामनवमी आदि पर्वों पर आनन्द मनावे और संगीत, नृत्य, बाजे और समाजों द्वारा मेरे मन्दिरों में उत्सव करे-करावे ॥३६॥
यात्रा बलिविधानं च सर्ववार्षिकपर्वसु ।
वैदिकी तान्त्रिकी दीक्षा मदीयव्रतधारणम् ॥३७॥
वार्षिक त्योहारों के दिन मेरे स्थानों की यात्रा करे, जुलूस निकाले तथा विविध उपहारों से मेरी पूजा करे। वैदिक अथवा तान्त्रिक पद्धति से दीक्षा ग्रहण करे। मेरे व्रतोंका पालन करे ॥३७॥
ममार्चास्थापने श्रद्धा स्वतः संहत्य चोद्यमः ।
उद्यानोपवनाक्रीडपुरमन्दिरकर्मणि ॥३८॥
मन्दिरों में मेरी मूर्तियों की स्थापना में श्रद्धा रखे। यदि यह काम अकेला न कर सके, तो औरों के साथ मिलकर उद्योग करे। मेरे लिये पुष्पवाटिका, बगीचे, क्रीड़ा के स्थान,
नगर और मन्दिर बनवावे ॥३८॥
सम्मार्जनोपलेपाभ्यां सेकमण्डलवर्तनैः ।
गृहशुश्रूषणं मह्यं दासवद् यदमायया ॥३९॥
सेवक की भाँति श्रद्धाभक्ति के साथ निष्कपट भाव से मेरे मन्दिरों की सेवा-शुश्रूषा करे-झाड़े-बुहारे, लीपे-पोते, छिड़काव करे और तरह-तरह के चौक पूरे ॥३९॥
अमानित्वमदम्भित्वं कृतस्यापरिकीर्तनम् ।
अपि दीपावलोकं मे नोपयुञ्ज्यान्निवेदितम् ॥४०॥
अभिमान न करे, दम्भ न करे। साथ ही अपने शुभ कर्मों का ढिंढोरा भी न पीटे। प्रिय उद्भव! मेरे चढ़ावे की, अपने काम में लगाने की बात तो दूर रही, मुझे समर्पित दीपक
के प्रकाश से भी अपना काम न ले। किसी दूसरे देवता की चढायी हुई वस्तु मुझे न चढावे ॥४०॥
यद् यदिष्टतमं लोके यच्चातिप्रियमात्मनः ।
तत्तन्निवेदयेन्मह्यं तदानन्त्याय कल्पते ॥४१॥
संसार में जो वस्तु अपने को सबसे प्रिय, सबसे अभीष्ट जान पड़े वह मुझे समर्पित कर दे। ऐसा करने से वह वस्तु अनन्त फल देनेवाली हो जाती है॥४१॥
सूर्योऽग्निर्ब्राह्मणो गावो वैष्णवः खं मरुज्जलम्।
भूरात्मा सर्वभूतानि भद्र पूजापदानि मे ॥४२॥
भद्र! सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, गौ, वैष्णव, आकाश, वायु, जल, पृथ्वी, आत्मा और समस्त प्राणी ये सब पूजा के स्थान हैं ॥४२॥
सूर्ये तु विद्यया त्रय्या हविषाग्नौ यजेत माम् ।
आतिथ्येन तु विप्राग्र्ये गोष्टङ यवसादिना ॥४३॥
प्यारे उद्धव ! ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के मन्त्रों द्वारा सूर्य में मेरी पूजा करनी चाहिये। हवन के द्वारा अग्नि में आतिथ्य द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मण में और हरी-हरी घास आदि के
द्वारा गौ में मेरी पूजा करे ॥४३॥
वैष्णवे बन्धुसत्कृत्या हृदि खे ध्याननिष्ठया ।
वायौ मुख्यधिया तोये द्रव्यैस्तोयपुरस्कृतैः ॥४४॥
भाई-बन्धु के समान सत्कार के द्वारा वैष्णव में, निरन्तर ध्यान में लगे रहने से हृदयाकाश में, मुख्य प्राण समझने से वायु में और जल-पुष्प आदि सामग्रियों द्वारा जल में मेरी आराधना की जाती है ॥४४॥
स्थण्डिले मन्त्रहृदयैर्भोगैरात्मानमात्मनि ।
क्षेत्रज्ञं सर्वभूतेषु समत्वेन यजेत माम् ॥४५॥
गुप्त मन्त्रों द्वारा न्यास करके मिट्टी की वेदी में, उपयुक्त भोगों द्वारा आत्मा में और समदृष्टि द्वारा सम्पूर्ण प्राणियों में मेरी आराधना करनी चाहिये, क्योंकि मैं सभी में क्षेत्रज्ञ
आत्मा के रूप से स्थित हूँ ॥४५॥
धिष्ण्येष्वेष्विति मद्रूपं शङ्खचक्रगदाम्बुजैः ।
युक्तं चतुर्भुजं शान्तं ध्यायन्नर्चेत् समाहितः ॥४६॥
इन सभी स्थानों में शङ्ख-चक्र-गदा-पद्म धारण किये चार भुजाओंवाले शान्तमूर्ति श्रीभगवान् विराजमान हैं, ऐसा ध्यान करते हुए एकाग्रता के साथ मेरी पूजा करनी चाहिये॥४६॥
इष्टापूर्तेन मामेवं यो यजेत समाहितः ।
लभते मयि सद्भक्तिं मत्स्मृतिः साधुसेवया ॥४७॥
इस प्रकार जो मनुष्य एकाग्र चित्तसे यज्ञ- यागादि इष्ट और कुआँ-बावली बनवाना आदि पूर्त्तकर्मो के द्वारा मेरी पूजा करता है, उसे मेरी श्रेष्ठ भक्ति प्राप्त होती है।
तथा संत-पुरुषों की सेवा करने से मेरे स्वरूप का ज्ञान भी हो जाता है ॥४७॥
प्रायेण भक्तियोगेन सत्सङ्गेन विनोद्धव ।
नोपायो विद्यते सध्य्रङ्प्रायणं हि सतामहम् ॥४८॥
प्यारे उद्धव ! मेरा ऐसा निश्चय है कि सत्सङ्ग और भक्तियोग—इन दो साधनों का एक साथ ही अनुष्ठान करते रहना चाहिये। प्रायः इन दोनों के अतिरिक्त संसार सागर
से पार होने का और कोई उपाय नहीं है, क्योंकि संतपुरुष मुझे अपना आश्रय मानते हैं और मैं सदा-सर्वदा उनके पास बना रहता हूँ ॥४८॥
अथैतत् परमं गुह्यं शृण्वतो यदुनन्दन ।
सुगोप्यमपि वक्ष्यामि त्वं मे भृत्यः सुहृत् सखा ॥४९॥
प्यारे उद्धव ! अब मैं तुम्हें एक अत्यन्त गोपनीय परम रहस्य की बात बतलाऊँगा; क्योंकि तुम मेरे प्रिय सेवक, हितैषी, सुहृद् और प्रेमी सखा हो; साथ ही सुनने के भी इच्छुक हो ॥४९॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामेकादशस्कन्धे एकादशोऽध्यायः ॥११॥उद्धवगीता - अध्याय -६